Saturday 4 October, 2008

तारा पीठ साधना--तंत्र साधना की तरफ़ एक कदम और...


१९९० में दुर्गा पूजा के समय मैंने स्वयं तारा पीठ जा कर अपने २ शिष्यों के साथ फ़िर से शव साधना की। शमशान पहुच कर एक अघोरी बाबा से मैंने पुछा की चरण पादुका तो मैंने देखा नही है। मुझे शव साधना करनी है तुम मुझे वह तक पहोचा दो। वह मुझे चरण पादुका तक ले गए। वहा पहले से ही एक साधक साधना कर रहा था। तब में बोहत दुखी हुआ मुझे लगा की मैं तो अब साधना नही कर पाउँगा
मुझे उदास देख कर उस अघोरी ने कहा की बाबा अगर आप चाहो तो एक जगह और है जहा की आप साधना कर सकते हो। मैंने उनसे उस जगह के विषय मैं जानकारी ली।
उस जगह कभी तारा पीठ के प्रथम साधक वामाखेपा ने अपनी साधना की थी। मैं बोहत प्रस्सन हुआ की मुझे उस जगह साधना करने का अवसर प्राप्त हुआ. लेकिन फ़िर उस अघोरी ने मुझे बताया की इस स्थल पर आज तक जितने भी साधक साधना करने आए वे या तो पागल हो गए या फ़िर मृत्यु को प्राप्त हो गए।
यह सुन कर मेरी जिज्ञासा और बढ़ गई। मैं चाहता था की मैं कुछ अलग और कठिन साधना करूँ। इसलिए मैंने संकल्प किया की अब तो मैं वही साधना करूँगा.
मैं वहा गया और रात में शव साधना प्रारम्भ कर दिया। इस बार भी पहले के जैसे चमत्कार हुए और शमशान में साधना करने वाले सभी अघोरी यह देखने लगे की एक २४ साल का युवा कितनी कठिन साधना कर रहा है।
उस रात पहली बार मैंने स्वतंत्र रूप से स्वयं साधना की थी। मेरी इस साधना से पूरा शमशान जाग उठा था, जो की अपने आप में ही एक अद्वित्य घटना थी।
रात भर मैंने कई गोपनीय क्रियाएं की और अंत में मैंने अपनी साधना प्रातः काल ५ बजे संपूर्ण की। वामाखेपा की साधना के बाद सिर्फ़ मैंने ही वहां पर यह साधना पूर्ण की थी। इस से मेरा मनोबल और बढ़ गया और तंत्र साधना के प्रति मेरा विश्वास और गहरा हो गया।

सुबह माँ तारा के दर्शन के बाद हम फ़िर से उस शमशान को देखने आए। फ़िर से उस अघोरी से मैंने बात की। सारे अघोरी मुझसे शिक्षा प्रतप्त करने के लिए विनीति करने लगे। तब मैंने उन्हे समझाया की मैंने तुंरत ही साधना सिद्धि में कदम रखा है. मैंने उनसे वशिष्ठ मुनि की चरम पादुका के पास ले जाने का अनुरोध किया। उस अघोरी बाबाके साथ मैं वहां पोहांचा।
चरण पादुका पे मैंने देखा की तीन कुवारी कन्याएं पूजा कर रही थी। मैं बहार ही रुक गया और उनकी पूजा समाप्ति की प्रतीक्षा करने लगा। वह तीनो मन्दिर के बाहर आ कर खड़ी हो गयीं। मैंने अपने शिष्यों को चरण पादुका के दर्शन के लिए भेजा। मैंने देखा की वोह तीन कन्याएं वही खड़ी थी। अंत में मैं भी पूजा करने के लिए चरण पादुका के पास गया। पूजा के बाद उन तीनो कन्याओं ने मुझे आवाज़ दे कर रोका और अपने हाथ से मुझे चंदन लगाया।

मैंने उनसे उनका परिचय पुछा तब उन्होंने कहा की वह पटना के पुनैचोव्क नमाक स्ताहन पर रहती हैं। मैंने उनसे उनका पता ले लिया और फ़िर वह वह से चली गयीं।
मैं भी वापस माँ तारा मन्दिर के बहार कुछ किताबें देखने लगा । वही मुझे वमखेपा की जीवनी नज़र आई। मैंने उसे ख़रीदा और पढने लगा। पढने के क्रम में मैंने यह जाना की वशिष्ठ पादुका के बाहर स्वयं वमखेपा को भी तीन कुवारी कन्याओं के रूप में स्वयं माँ ने दर्शन दिए थे और उन्हे भी चंदन का तिलक लगाया था।
यह पढ़ते ही मैं व्याकुल हो उठा और उन तीनो कन्याओं को खोजने लगा। लेकिन फ़िर भी वोह तीनो मुझे कही दिखाई नही दी।
मुझे बोहुत ग्लानी हुई की काश मैंने जीवनी पहले पढ़ी होती तो मैं माँ का चरण पकड़ लेता जब उन्होंने मुझे दर्शन दिया।
उसके बाद हम लोग कलकत्ता के लिए रवाना हो गए। कलकत्ता पोहचने के बाद एक मारवाडी धर्मशाला मैं रुके और भूतनाथ के दर्शन किए।
फ़िर रात में भूतनाथ शमशान में भैरव साधना शुरू किया। उसके बाद दाख्शिनेश्वर मन्दिर में माँ काली के दर्शन करने के बाद वापस रक्सौल के लिए प्रस्थान किया.

No comments:

Post a Comment