साधना करने के साथ साथ १९९० से मैंने मन्दिर निर्मांड का कार्य भी ज़ोर शोर से शुरू कर दिया। उस दौरान मेरी उम्र बोहत कम थी और मेरे भक्तो की भी संख्या कम थी। मेरा सपना था की मैं बिहार राज्य मैं सबसे ऊँचा मन्दिर बन्वओं जिसके हर खंड में अनेकों देवी देवताओं की प्रतिमा स्थापित हो। इस सोच को मन में लिए मैं माँ की आराधना करता रहा। माँ की कृपा मेरे ऊपर सदा बनी रही और मेरे भक्तो ने मुझे मन्दिर बनाने में अपने समार्थ अनुरूप सहयोग दिया। मुझे फ़िर भी लगा की अभी कुछ और करना है इसलिए मैंने टी.म.ठ्कर की दावा कंपनी में काम करना शुरू किया। वहा काम करने से जितना पैसा एकत्रित हुआ वह सब मैंने मन्दिर के भू तल निर्मांड में लगा दिया। उस समय मैं अपने माता पिता के साथ रहता था इसलिए मेरा अपना खर्च भी कुछ नही था।
मेरी इक्षा थी की शिवरात्रि तक मैं अपने साधना ग्रह में माँ काली और गुरु भगवान् शिव की स्थापना कर दूँ।
पर मूर्ती खरीदने के लिए पैसों की कमी थी। इस बार फ़िर माँ ने अपनी कृपा दिखायी और उनकी कृपा से एक दिन स्वयं मेरे प्रथम शिष्य किरण शंकर सर्राफ जी ने अपनी ओर से मन्दिर की प्रतिमा दान देने की अपनी इक्षा मुझसे व्यक्त की। साथ ही मेरे एक और शिष्य श्री नन्द जी बरनवाल ने शिव लिंग की प्रतिमा दान करने का निश्चय किया। मेरी खुशी का ठिकाना ना रहा और मैं नन्द जी और राज किशोर जी को साथ ले के शीघ्र ही बनारस जा पहुँचा। वहा के जयपुर मूर्ती भण्डार में मैंने माँ की अनेकों प्रतिमाएं देखीं। एक प्रतिमा ने मुझे बोहत आकर्षित किया।
उसका मूल्य ३५००० रुपए था। किरण जी से मुझे २५००० रुपए मिले थे और मेरे पास ख़ुद के पैसे मिला कर सिर्फ़ ३१००० रुपए बन पा रहे थे। दूकानदार संजय गौर से मैंने बोहत कहा की वोह मुझे प्रतिमा ३१००० में दे दे। परन्तु वोह नही माना। मैंने हठ कर लिया था की जब तक वो प्रतिमा नही लूँगा तब तक अन्न जल ग्रहण नही करूँगा। दूकानदार और उसके पिताजी दोनों ही इतने कम दाम मैंने मूर्ति देने को तैयार नही थे। शाम तक बिना कुछ ग्रहण किए वही बैठा रहा। अंत में मेरी आँखों से आंसू गिरने लगे। तब दुकानदार के पिताजी को मेरे हठ का पता चला। और वो प्रतिमा ३१००० में देने को राजी हो गए। मैंने उन्हे आशीर्वाद दिया की यह ५००० हज़ार का मूल्य उन्हे लाखों में माँ से वापस मिलेगा। फ़िर मैं माँ की मूर्ति और शिव लिंग ले के वहां से निकला। आज वही जयपुर मूर्ति भण्डार अरबो की कमाई कर रहा है और वहां के दूकानदार मेरे भक्त बन गए हैं और बिना पैसे के भी वो आज मूर्ति देने के लिए व्याकुल रहते हैं।
अब मेरे पास सिर्फ़ १५०० रुपए बचे थे और रक्सौल मूर्ति के जाने के लिए जीप का दाम ३००० से ज्यादा था। मैं सोच ही रहा था की मूर्ति को सुरक्षित कैसे ले जाओं। तभी कही से एक भांग पिया हुआ ड्राईवर एक जीप में स्वयं आया और उसने अपने मालिक से पुछा की कहीं सामन ले जाना है? मालिक ने उसे हमारे बारे में बताया की रक्सौल जाना है। आश्चर्य की बात यह थी की उसने स्वयं ही १५०० रुपए मांगे जितने की मेरे पास थे। तब हम मूर्ति ले के रक्सौल के लिए रवाना हो गए। उस ड्राईवर को मैंने शिव का साक्षात् रूप माना। और रक्सौल जाके उसे अपनी तरफ़ से २५१ रुपए दिए और अपने घर खाना भी खिलाया। वह भी बोहत खुश होके वापस गया।
इस प्रकार १९ फरवरी १९९३ को माँ काली और शिव लिंग की तांत्रिक पद्दति से मेरे साधना ग्रह में मेरे द्वारा स्थापना पूर्ण हुई।
अब मेरे पास सिर्फ़ १५०० रुपए बचे थे और रक्सौल मूर्ति के जाने के लिए जीप का दाम ३००० से ज्यादा था। मैं सोच ही रहा था की मूर्ति को सुरक्षित कैसे ले जाओं। तभी कही से एक भांग पिया हुआ ड्राईवर एक जीप में स्वयं आया और उसने अपने मालिक से पुछा की कहीं सामन ले जाना है? मालिक ने उसे हमारे बारे में बताया की रक्सौल जाना है। आश्चर्य की बात यह थी की उसने स्वयं ही १५०० रुपए मांगे जितने की मेरे पास थे। तब हम मूर्ति ले के रक्सौल के लिए रवाना हो गए। उस ड्राईवर को मैंने शिव का साक्षात् रूप माना। और रक्सौल जाके उसे अपनी तरफ़ से २५१ रुपए दिए और अपने घर खाना भी खिलाया। वह भी बोहत खुश होके वापस गया।
इस प्रकार १९ फरवरी १९९३ को माँ काली और शिव लिंग की तांत्रिक पद्दति से मेरे साधना ग्रह में मेरे द्वारा स्थापना पूर्ण हुई।
उस दिन मैंने माँ से पहली बार एक प्राथना की। मैंने उनसे कहा की "हे माँ हर साल आप एक खंड बनवा देना इस से अधिक मैं कुछ नही मांगता। " और यह भी एक सत्य है की आज तक हर साल माँ की कृपा से मैं कुछ न कुछ बनवा ही रहा हूँ... १९९९ में इस मन्दिर के सात खंड पूरे हुए।