Saturday, 13 April 2013
Saturday, 7 July 2012
Saturday, 16 June 2012
Friday, 15 June 2012
Thursday, 14 June 2012
Sunday, 1 April 2012
Thursday, 23 February 2012
Tuesday, 12 April 2011
कुवारी पूजन का महत्व
हिंदू धर्म में कुवारी पूजन का महत्त्व भारत वर्ष में प्राचीन काल से चला आ रहा है। हमारे शास्त्रों में कुआरी को अग्नि, सूर्य, वायु, चंद्रमा,नक्षत्र, जल और ब्रह्म की संज्ञा दी गई है। कुआरी को खिले हुए कमल के गुच्छे के सामान नवीन और कोमल कहा गया है। कुआरी के नेत्र रूपी कमल विश्व स्वरूपी जल में तैरते रहते हैं। वह मनुष्यों को प्रेम और करुना भरी दृष्टि से देखती हैं। उसकी वाणी में काफी मिठास होती। इस में कोई शंशय नही है की कुआरी को देखने के बाद मनुष्य का पुरूष भावः भी मिट जाता है।
इश्वर की आराधना कुआरी के पवित्र रूप में करने से व्यक्ति के अन्दर आध्यात्म के प्रति अच्छी विचारधारा का विकास होता है। मनुष्य के अन्दर के मनोविकार एवं दुष्ट भावो का नाश होता है और समाज की नारियों के प्रति उसके भावः में पवित्रता आती है। उसका मस्तक स्वतः कुवारियों को देख कर झुक जाता है।
शास्त्रों में नारी को पवित्रता के रूप में देखना एक अपने आप में उच्च साधना है। तथा जो भक्त देवी की उपासना करते हैं एवं कुवारियों की पूजा करते हैं उनका कभी भी पतन नही होता। कुवारी पूजन से हक्तो के अन्दर एक विशेष प्रकार की शक्ति का समावेश होता है जो जीवन के हर क्षेत्र में प्रगति के मार्ग को प्रशस्त्र करता है।
तंत्रों में भी कुअरियों को साधना के रूप में अपनाया जाता है। जो भक्त नित्य कुवारियों का पूजन करता है एवं अन्न, वस्त्र दान करता है उसको संसार के सभी भौतिक सुखो की प्राप्ति होती है। जिस प्रकार हिंदू धर्म में ब्रह्मण भोज का महत्त्व है उसी प्रकार कुवारी पूजन एवं भोज का महत्त्व है।
शास्त्रों में यह भी वर्णन है की जिस स्थान पर कुवारियों की पूजा होती है उस स्थान से चारो दिशाओं के पाँच कोसो तक के क्षेत्र में सुख शान्ति का वास और दरिद्रता का नाश होता है। ऋषि मनु जैसे महर्षि ने कहा है की जहा नारी की पूजा होती है वह देवता का निवास होता है।
किस कुवारी की पूजा करनी चाहिए?
१ ब्रह्मण की लड़की दस वर्ष की आयु से नीचे
२ क्षत्रिय की लड़की दस वर्ष की आयु से नीचे
३ वैश्य की लड़की दस वर्ष की आयु से नीचे
४ शुद्र की लड़की दस वर्ष की आयु से नीचे
५ प्रताडित नारी की लड़की दस वर्ष की आयु से नीचे
यह सभी कुवारी लडकियां पूजन के योग्य हैं। जिस कुवारी पूजन में किसी एक ही वर्ण की लड़किया होती हैं उसे निम्न स्तर का पूजन कहा जाता है। जिस कुवारी पूजन में दो वर्ण की लड़किया होती हैं उसे मध्य स्तर का पूजन कहा जाता है। जिस कुवारी पूजन में पांचो वर्णों की कुवारी लड़कियां हो उसे उच्चकोटि का कुवारी पूजन माना जाता है।
कैसे करें कुवारी पूजन?
नवमी के दिन हवन करने के पश्चात् कुवारियों को नए वस्त्र पहना कर विधिवत पूजा अर्चना कर उत्तम पकवानों का भोग लगा कर, दक्षिणा दान कर, आरती करें और अंत में उन कुवारियों के झूठन को प्रसाद के रूप में स्वयं ग्रहण करें। शास्त्रों में लिखा गया है की ऐसा करने से महाव्याधि (कुष्ठ ) जैसे रोगों का नाश होता है।
इश्वर की आराधना कुआरी के पवित्र रूप में करने से व्यक्ति के अन्दर आध्यात्म के प्रति अच्छी विचारधारा का विकास होता है। मनुष्य के अन्दर के मनोविकार एवं दुष्ट भावो का नाश होता है और समाज की नारियों के प्रति उसके भावः में पवित्रता आती है। उसका मस्तक स्वतः कुवारियों को देख कर झुक जाता है।
शास्त्रों में नारी को पवित्रता के रूप में देखना एक अपने आप में उच्च साधना है। तथा जो भक्त देवी की उपासना करते हैं एवं कुवारियों की पूजा करते हैं उनका कभी भी पतन नही होता। कुवारी पूजन से हक्तो के अन्दर एक विशेष प्रकार की शक्ति का समावेश होता है जो जीवन के हर क्षेत्र में प्रगति के मार्ग को प्रशस्त्र करता है।
तंत्रों में भी कुअरियों को साधना के रूप में अपनाया जाता है। जो भक्त नित्य कुवारियों का पूजन करता है एवं अन्न, वस्त्र दान करता है उसको संसार के सभी भौतिक सुखो की प्राप्ति होती है। जिस प्रकार हिंदू धर्म में ब्रह्मण भोज का महत्त्व है उसी प्रकार कुवारी पूजन एवं भोज का महत्त्व है।
शास्त्रों में यह भी वर्णन है की जिस स्थान पर कुवारियों की पूजा होती है उस स्थान से चारो दिशाओं के पाँच कोसो तक के क्षेत्र में सुख शान्ति का वास और दरिद्रता का नाश होता है। ऋषि मनु जैसे महर्षि ने कहा है की जहा नारी की पूजा होती है वह देवता का निवास होता है।
किस कुवारी की पूजा करनी चाहिए?
१ ब्रह्मण की लड़की दस वर्ष की आयु से नीचे
२ क्षत्रिय की लड़की दस वर्ष की आयु से नीचे
३ वैश्य की लड़की दस वर्ष की आयु से नीचे
४ शुद्र की लड़की दस वर्ष की आयु से नीचे
५ प्रताडित नारी की लड़की दस वर्ष की आयु से नीचे
यह सभी कुवारी लडकियां पूजन के योग्य हैं। जिस कुवारी पूजन में किसी एक ही वर्ण की लड़किया होती हैं उसे निम्न स्तर का पूजन कहा जाता है। जिस कुवारी पूजन में दो वर्ण की लड़किया होती हैं उसे मध्य स्तर का पूजन कहा जाता है। जिस कुवारी पूजन में पांचो वर्णों की कुवारी लड़कियां हो उसे उच्चकोटि का कुवारी पूजन माना जाता है।
कैसे करें कुवारी पूजन?
नवमी के दिन हवन करने के पश्चात् कुवारियों को नए वस्त्र पहना कर विधिवत पूजा अर्चना कर उत्तम पकवानों का भोग लगा कर, दक्षिणा दान कर, आरती करें और अंत में उन कुवारियों के झूठन को प्रसाद के रूप में स्वयं ग्रहण करें। शास्त्रों में लिखा गया है की ऐसा करने से महाव्याधि (कुष्ठ ) जैसे रोगों का नाश होता है।
दसवां दिन: माँ कमला
दसवें दिन की महा देवी माँ कमला स्वरुप
हैं। इनकी साधना साधक को आकाश की ओर मुख करके करनी चाहिए।इनका महा मंत्र - क्रीं ह्रीं कमला ह्रीं क्रीं स्वाहा: है। इस मंत्र का कम से कम ११०० बार जाप करना चाहिए तथा विशेष सिद्धि के लिए विशेष जाप की आवशकता होती है।सामान्य भक्तजन न्यूनतम सुबह शाम इस महा मंत्र का जाप १०८-१०८ बार करें। माँ कमला का जाप दसो महाविद्या में सबसे श्रेष्ठ बताया गया है। इनका जाप करने वाले जीवन में कभी भी दरिद्र नही होते। शास्त्रों में कहा गया है की जो माँ कमला की साधना करते हैं उन्हे सभी प्रकार के भौतिक सुख प्राप्त होते हैं।
नौवां दिन: माँ मातंगी
नौवे दिन की महा देवी माँ मातंगी स्वरुप हैं। इनकी साधना साधक को पृथ्वी की ओर मुख करके करनी चाहिए। इनका महा मंत्र - क्रीं ह्रीं मातंगी ह्रीं क्रीं स्वाहा: है। इस मंत्र का कम से कम ११०० बार जाप करना चाहिए तथा विशेष सिद्धि के लिए विशेष जाप की आवशकता होती है।सामान्य भक्तजन न्यूनतम सुबह शाम इस महा मंत्र का जाप १०८-१०८ बार करें। माँ मातंगी का जाप ऐसे व्यक्ति को करना चाहिए जिनके जीवन में माता के प्रेम की कमी हो अथवा उनकी माता को कोई कष्ट हो। जो किसान आकाल या बाढ़ से पीड़ित होते है वे भी माँ मातंगी का अगर सामूहिक रूप से जाप करे तो अकाल या बढ़ का प्रभाव कम होता है.
Monday, 11 April 2011
आठवां दिन: माँ बंगलामुखी
आठवे दिन की महा देवी माँ बंगलामुखी स्वरुप हैं। इनकी साधना साधक को भंडार कोन की ओर मुख करके करनी चाहिए। भंडार कोण पश्चिम और उत्तर दिशा के बीच का कोण होता है।इनका महा मंत्र - क्रीं ह्रीं बंगलामुखी ह्रीं क्रीं स्वाहा: है। इस मंत्र का कम से कम ११०० बार जाप करना चाहिए तथा विशेष सिद्धि के लिए विशेष जाप की आवशकता होती है।सामान्य भक्तजन न्यूनतम सुबह शाम इस महा मंत्र का जाप १०८-१०८ बार करें। माँ बंगलामुखी का जाप ऐसे व्यक्ति को करना चाहिए जिनके ऊपर किसी तांत्रिक क्रिया को कराया जा रहा हो और जिस से वो परेशान हो। इस मंत्र का जाप करने से वैसे दुष्ट व्यक्तियों का नाश होता है। इनका जाप करते समय साधक को पीला वस्त्र धारण करना चाहिए और पीले माला से जाप करना चाहिए। उस माला को जाप ख़त्म होने के बाद किसी पीपल के पेड़ पर टांग देना चाहिए.
Sunday, 10 April 2011
सातवाँ दिन: माँ धूमावती
सातवें दिन की महा देवी माँ धूमावती स्वरुप हैं। इनकी साधना साधक को पश्चिम कोन की ओर मुख करके करनी चाहिए। इनका महा मंत्र - क्रीं ह्रीं धूमावती ह्रीं क्रीं स्वाहा: है। इस मंत्र का कम से कम ११०० बार जाप करना चाहिए तथा विशेष सिद्धि के लिए विशेष जाप की आवशकता होती है।सामान्य भक्तजन न्यूनतम सुबह शाम इस महा मंत्र का जाप १०८-१०८ बार करें तो उनके घर से रोग, कलह, दरिद्रता का नाश होता है.
Saturday, 9 April 2011
छठा दिन: माँ भैरवी
छठे दिन की महा देवी माँ भैरवी स्वरुप हैं। इनकी साधना साधक को नैरित कोन की ओर मुख करके करनी चाहिए।नैरित कोण दक्षिण और पश्चिम दिशा के बीच का कोण होता है।इनका महा मंत्र -क्रीं ह्रीं भैरवी ह्रीं क्रीं स्वाहा: है। इस मंत्र का कम से कम ११०० बार जाप करना चाहिए तथा विशेष सिद्धि के लिए विशेष जाप की आवशकता होती है।सामान्य भक्तजन न्यूनतम सुबह शाम इस महा मंत्र का जाप १०८-१०८ बार करें तो दुष्टों का नाश होता है तथा अकाल मृत्यु , दुष्टात्मा के प्रभाव से बचाव होता hai।
पांचवा दिन: माँ छिन्मस्तिका काली
पांचवा दिन की महा देवी माँ छिन्मस्तिका काली स्वरुप हैं।
इनकी साधना साधक को दक्षिण कोन की ओर मुख करके करनी चाहिए। इनका महा मंत्र -क्रीं ह्रीं छिन्मस्तिका ह्रीं क्रीं स्वाहा: है। इस मंत्र का कम से कम ११०० बार जाप करना चाहिए तथा विशेष सिद्धि के लिए विशेष जाप की आवशकता होती है।सामान्य भक्तजन न्यूनतम सुबह शाम इस महा मंत्र का जाप १०८-१०८ बार करें तो दुष्टों का नाश होता है तथा उस व्यक्ति के तमो गुन और रजो गुन का भी नाश होता है। साथ ही साथ जो पुरूष या महिला इस मंत्र का जाप करते हैं उनके काम वासना को नियंत्रित करता है.
Thursday, 7 April 2011
चौथा दिन- माँ षोडशी
चौथा दिन की महा देवी माँ षोडशी स्वरुप हैं।
इनकी साधना साधक को अग्नि कोन की ओर मुख करके करनी चाहिए। अग्नि कोन पूर्व दक्षिण दिशा के बीच के कोन को कहते हैं।-क्रीं ह्रीं षोडशी ह्रीं क्रीं स्वाहा: इस मंत्र का कम से कम ११०० बार जाप करना चाहिए तथा विशेष सिद्धि के लिए विशेष जाप की आवशकता होती है।सामान्य भक्तजन न्यूनतम सुबह शाम इस महा मंत्र का जाप १०८-१०८ बार करें तो उनका यौवन बना रहता है तथा उस व्यक्ति मैं आकर्षण की शक्ति बढती है। साथ ही साथ जो पुरूष या महिला इस मंत्र का जाप करते हैं उन्हें कार्तिक के सामान वीर पुत्र की प्राप्ति होती है।
इनकी साधना साधक को अग्नि कोन की ओर मुख करके करनी चाहिए। अग्नि कोन पूर्व दक्षिण दिशा के बीच के कोन को कहते हैं।-क्रीं ह्रीं षोडशी ह्रीं क्रीं स्वाहा: इस मंत्र का कम से कम ११०० बार जाप करना चाहिए तथा विशेष सिद्धि के लिए विशेष जाप की आवशकता होती है।सामान्य भक्तजन न्यूनतम सुबह शाम इस महा मंत्र का जाप १०८-१०८ बार करें तो उनका यौवन बना रहता है तथा उस व्यक्ति मैं आकर्षण की शक्ति बढती है। साथ ही साथ जो पुरूष या महिला इस मंत्र का जाप करते हैं उन्हें कार्तिक के सामान वीर पुत्र की प्राप्ति होती है।
Wednesday, 6 April 2011
तीसरा दिन: माँ भुवनेश्वरी
तीसरे दिन की महा देवी माँ भुवनेश्वरी स्वरुप हैं।
इनकी साधना साधक को पूरब की ओर मुख करके करनी चाहिए।
इनका महा मंत्र क्रीं ह्रीं भुवनेश्वरी ह्रीं क्रीं स्वाहा.
इस मंत्र का कम से कम ११०० बार जाप करना चाहिए तथा विशेष सिद्धि के लिए विशेष जाप की आवशकता होती है।
सामान्य भक्तजन न्यूनतम सुबह शाम १०८ -१०८ बार इस मंत्र का जाप करें तो भुवन के सभी प्रकार की सुख सुविधाएँ उसे प्राप्त होती हैं तथा दरिद्र व्यक्तियों का इनकी आराधना करना सबसे उचित माना गया है.
इनकी साधना साधक को पूरब की ओर मुख करके करनी चाहिए।
इनका महा मंत्र क्रीं ह्रीं भुवनेश्वरी ह्रीं क्रीं स्वाहा.
इस मंत्र का कम से कम ११०० बार जाप करना चाहिए तथा विशेष सिद्धि के लिए विशेष जाप की आवशकता होती है।
सामान्य भक्तजन न्यूनतम सुबह शाम १०८ -१०८ बार इस मंत्र का जाप करें तो भुवन के सभी प्रकार की सुख सुविधाएँ उसे प्राप्त होती हैं तथा दरिद्र व्यक्तियों का इनकी आराधना करना सबसे उचित माना गया है.
द्वितीय दिन: माँ तारा की साधना.
दूसरे दिन की महा देवी माँ तारा स्वरुप हैं।
इनकी साधना साधक को ईशान कोने की ओर मुख करके करनी चाहिए। ईशान कोन उत्तर पूर्व दिशा के बीच के कोन को कहते हैं.
इनका महा मंत्र -क्रीं ह्रीं तारा ह्रीं क्रीं स्वाहा.
इस मंत्र का कम से कम ११०० बार जाप करना चाहिए तथा विशेष सिद्धि के लिए विशेष जाप की आवशकता होती है।
सामान्य भक्तजन न्यूनतम सुबह शाम इस महा मंत्र का जाप १०८-१०८ बार करें तो उनके पुत्र के कष्टों का नाश होता है. अथवा अगर पुत्रहीन स्त्रियाँ यह जाप करें तो उन्हे पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। इस मन्त्र के जाप से दुश्मनों पर विजय की प्राप्ति भी होती है.
Tuesday, 5 April 2011
नवरात्र प्रारम्भ- प्रथम दिन माँ काली
नवरात्र में दस महा विद्या की साधना सबसे श्रेष्ठ मानी गई है। उच्च्य कोटि के साधक चैत्र नवरात्र में ही दस महाविद्या की साधना को सिद्ध किया करते हैं. उन सभी भक्तो और साधुओं के लिए दस महाविद्या की साधना कैसे करें मैं यहाँ संचिप्त में वर्णन कर रहा हूँ।
प्रथम दिन की महा देवी काली स्वरुप हैं।
इनकी साधना साधक को उत्तर की ओर मुख करके करनी चाहिए
इनका महा मंत्र - क्रीं ह्रीं काली ह्रीं क्रीं स्वाहा:
इस मंत्र का कम से कम ११०० बार जाप करना चाहिए तथा विशेष सिद्धि के लिए विशेष जाप की आवशकता होती है।
दस महाविद्या की साधना करनेवाले सभी साधको को ९ दिन फलहार में रहना चाहिए तथा किसी एक रंग के वस्त्र को नौ दिन धारण करना चाहिए।
रंगों में तीन रंग प्रमुख हैं- काला (उत्तम ), लाल (मध्य ), सफ़ेद (निम्न)। इस प्रकार का साधना विशेष साधको के लिए है। परन्तु सामान्य भक्तजन न्यूनतम सुबह शाम इस म़हामंत्र का जाप 108 बार करें तो उनके घरमें सुख शान्ति बनी रहती है और आकाल मृत्यु नही होती है.
मैं इस ब्लॉग में नवों दिन दस महा विद्या की देवियों की पूजा का इसी प्रकार वर्णन करूँगा। विस्तृत जानकारी के लिए संजय्तंत्रम पुस्तक को पढे। यह पुस्तक आप मेरी साईट Books To Download से खरीद सकते हैं.
Saturday, 4 December 2010
पुत्र प्राप्ति हेतु अचूक उपचार
पुत्र प्राप्ति हेतु सिद्ध किया हुआ शिवलिंगी जड़ी नित्य खाली पेट जो महिलाए दूध के साथ खाती हैं उन्हे अवश्य पुत्र प्राप्ति होती है. लेकिन यह शिवलिंगी जड़ी किसी वाम मार्गी साधक द्वारा सिद्ध किया होना चाहिए ओर इसका सेवन कम से कम एक साल तक लागातार करना पड़ता है.
For Indian Customers: Rs 5100 for 250grams.
For NRI Customers: $ 120 for 250 grams
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वास्तु दोष निवारण उपाय
जब भी नया घर लेते हैं ओर उसमें परेशानिया आने लगे जैसे की अनेक प्रकार के आवाज़ सुनाई देना, भय लगना, घर में मृत्यु हो जाना, संतान की मृत्यु हो जाना, व्यापार में मंदी होना, एकाएक घर में आग लग जाना, घर के लोगो का अस्वस्थ हो जाना यह सब वास्तु दोष माने जाते हैं.
इसके निवारण के लिए वास्तु दोष निवारण कलश का अविष्कार किया गया है. ओर जिन लोगों ने भी इसे अपने घर के इशान कोने में अमावस्या की रात को स्थापित किया है उनकी यह सभी बाधाएँ डोर हुई है.
नोट: इस कलश का प्रयोग तभी करें जब आप सभी क्रियाओं से निराश हो गये हो.
For Indian Customers: Rs 11000 INR
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इसके निवारण के लिए वास्तु दोष निवारण कलश का अविष्कार किया गया है. ओर जिन लोगों ने भी इसे अपने घर के इशान कोने में अमावस्या की रात को स्थापित किया है उनकी यह सभी बाधाएँ डोर हुई है.
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काला जादू ऑर ब्लॅक मॅजिक से ग्रस्त लोगों के लिए चमत्कारी उपाय
जिस व्यक्ति के घर में लगातार कोई व्यक्ति बीमार रहता हो ऑर डॉक्टर के दिखाने के बाद भी वो अस्वस्थ रहता हो या
कोई भी व्यापार में तरक्की नही हो पाती हो, लगातार घर में दुर्घटना होती रहती है.
किसी भी मेडिकल प्राब्लम के ना होने के बावजूद भी संतान का जन्म नही हो पा रहा हो.
पति पत्नी के बीच लगातार मन मुटाव है या फिर पति या पत्नी किसी दूसरे के प्रभाव में आ कर एक दूसरे से अलग हो गये हो,शरीर पर सो के उठने के बाद यदि काले काले धब्बे दिखाई देते है तो यह कथित जादू टोना या नज़र लगने के प्रभाव माने जाते है.
जब भी यह सब प्रॉब्लम्स किसी डॉक्टर से इलाज़ लेने के बाद भी ठीक ना हो तब आप एक बार सर्व बाधा निवारण यंत्र को धारण कर के देखें. इस से पीड़ित व्यक्ति को काफ़ी हद तक फ़ायदा होता है.
For Indian Customers: Rs7500
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कोई भी व्यापार में तरक्की नही हो पाती हो, लगातार घर में दुर्घटना होती रहती है.
किसी भी मेडिकल प्राब्लम के ना होने के बावजूद भी संतान का जन्म नही हो पा रहा हो.
पति पत्नी के बीच लगातार मन मुटाव है या फिर पति या पत्नी किसी दूसरे के प्रभाव में आ कर एक दूसरे से अलग हो गये हो,शरीर पर सो के उठने के बाद यदि काले काले धब्बे दिखाई देते है तो यह कथित जादू टोना या नज़र लगने के प्रभाव माने जाते है.
जब भी यह सब प्रॉब्लम्स किसी डॉक्टर से इलाज़ लेने के बाद भी ठीक ना हो तब आप एक बार सर्व बाधा निवारण यंत्र को धारण कर के देखें. इस से पीड़ित व्यक्ति को काफ़ी हद तक फ़ायदा होता है.
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Saturday, 9 October 2010
अश्विन नवरात्रा २०१० प्रारंभ - ६०२ कलश की सामूहिक स्थापना.
सेवक संजयनाथ काली मंदिर में आज अश्विन नवरात्रा का प्रारंभ बड़ी ही धूम धाम से शुरू हुआ.
इस साल सामूहिक कलश स्थापना के पिछले सभी रेकॉर्ड टूट गये ऑर मंदिर के प्रांगांद में ६०२ कलशो की स्थापना हुई ऑर विधिवत नवरात्रा की पूजा की शुरुआत भी हुई.
यह अपने आप में एक विश्व रेकॉर्ड है. भारत तथा विश्व के किसी भी मंदिर में एकसाथ इतनी बड़ी सामूहिक पूजा नही होती.
भारत के अनेको राज्यो तथा ऑस्ट्रेलिया, चाइना, नेपाल, इंग्लेंड, अमेरिका,श्रीलंका तथा मारिशियस से भक्तों के कलश स्थापना के लिए नवरात्रा शुरू होने से १० दिन पहले से ही बुकिंग हो गयी थी.
इस साल सामूहिक कलश स्थापना के पिछले सभी रेकॉर्ड टूट गये ऑर मंदिर के प्रांगांद में ६०२ कलशो की स्थापना हुई ऑर विधिवत नवरात्रा की पूजा की शुरुआत भी हुई.
यह अपने आप में एक विश्व रेकॉर्ड है. भारत तथा विश्व के किसी भी मंदिर में एकसाथ इतनी बड़ी सामूहिक पूजा नही होती.
भारत के अनेको राज्यो तथा ऑस्ट्रेलिया, चाइना, नेपाल, इंग्लेंड, अमेरिका,श्रीलंका तथा मारिशियस से भक्तों के कलश स्थापना के लिए नवरात्रा शुरू होने से १० दिन पहले से ही बुकिंग हो गयी थी.
Friday, 30 July 2010
सावन माह में भस्म लगाने का महात्म
सावन माह में भगवान शिव पर भस्म चढ़ाना एवं भस्म का त्रिपुंड बनाना कोटि महायज्ञ करने के सामान होता है.
साथ साथ उस भस्म कों साधक अपने मस्तक एवं अनेक अंगों पर लगते हैं तो उसके अलग अलग फल प्राप्त होते हैं.
भस्म दो प्रकार के होते हैं:
१. महा भस्म
२. स्वल्प भस्म
महा भस्म शिवजी का मुख्य स्वरुप है. पर स्वल्प भस्म की अनेक शाखाएं हैं स्त्रोत, स्मार्त और लौकिक भस्म अत्यंत प्रसिद्द स्वल्प भस्म की शाखाएं हैं.
जो भस्म वेद की रीति से धारण की जाती हैं उसे स्त्रोत भस्म कहा जाता है,
जो भस्म स्मृति अथवा पुरानो की रीति से धारण की जाती है उसे स्मार्त कहते हैं.
जो भस्म सांसारिक अग्नि से उत्पन्न होती है और धारण की जाती है उसे लौकिक कहा जाता है.
स्त्रोत तथा स्मार्त भस्म सिर्फ आत्म ज्ञानी ब्रह्मण एवं सन्यासियों कों ही धारण करना चाहिए लेकिन लौकिक भस्म सभी वर्ण के लोग धारण कर सकते हैं. लौकिक भस्म तांत्रिक मन्त्र या भगवान शिव का नाम लेके अपने शारीर पर धारण करना चाहिए. शिव पुराण में लिखा है की भगवान विष्णु, ब्रह्मा के साथ साथ सभी योगी, सिद्ध नाग आदि सभी भस्म धारण करते हैं एवं वेद का कथन है की बिना भस्म धारण किये सब प्रकार के आचार तथा पूजा निष्फल होते हैं. क्योंकि ऐसे मनुष्यों पर ना तो शिव जिसमें ही कृपा करते हैं और न ही उनका कोई कार्य ही सिद्ध होता है.
भस्म का महात्म अनादी तथा अनंत है. भस्म कों धारण करने में कुल और वर्ण का विचार नहीं होता है. भस्म धारण करने वाले मनुष्य कों तीर्थ के सामान समझना चाहिए. भस्म धारण करने वालों कों सम्पूर्ण विद्याओं का निधान समझना चाहिए.
जो मनुष्य भस्म धारण करने वालों की निंदा करता है वह अपने जन्म कों निष्फल कर देता है. पुरुष, स्त्री, बालक, वृद्ध और तरुण सभी भस्म धारण कर सकते हैं. भस्म धारण करने वाले कों अधिक पवित्रता की आवश्यकता नहीं है.
जिस ललाट पर भस्म न हो उसे धिक्कार है, जिस गाँव में शिव मंदिर न हो उसे भी धिक्कार है. सम्पूर्ण देवता मुनि येही कहते हैं की जो लोग भस्म की निंदा करते है वोह बहुत वर्षों तक नरक में निवास करते हैं. :
शरीर के अंगों पर भस्म कहाँ लगाएं:
सर, ललाट, कर्ण, नेत्र , नासिका, मुख, कंठ , भुजा, उदर, हाथ, छाती, पंजर, नाभि, मुस्क, त्रिबेली , दोनों जन्घो के मध्य का भाग, तथा चरण यह सब बत्तीस स्थान हैं लेकिन आम भक्तों के लिए सिर्फ मस्तक में नित्य त्रिपुंड लगाना ही गंगा स्नान करने के फल सामान है.
जो भी भक्त सावन के महीने में भी कम से कम नित्य भगवान शिवजी कों भस्म अर्पण कर के स्वयं अपने माथे में त्रिपुंड (भस्म) लगाये तो उसके पास हमेशा धन धन्य, स्वास्थ तथा ख़ुशी बानी रहती है.
सावन में एकादश रूद्र पूजा की विधि के लिए इस पृष्ठ कों पढ़ें: रूद्र पूजा महातम
साथ साथ उस भस्म कों साधक अपने मस्तक एवं अनेक अंगों पर लगते हैं तो उसके अलग अलग फल प्राप्त होते हैं.
भस्म दो प्रकार के होते हैं:
१. महा भस्म
२. स्वल्प भस्म
महा भस्म शिवजी का मुख्य स्वरुप है. पर स्वल्प भस्म की अनेक शाखाएं हैं स्त्रोत, स्मार्त और लौकिक भस्म अत्यंत प्रसिद्द स्वल्प भस्म की शाखाएं हैं.
जो भस्म वेद की रीति से धारण की जाती हैं उसे स्त्रोत भस्म कहा जाता है,
जो भस्म स्मृति अथवा पुरानो की रीति से धारण की जाती है उसे स्मार्त कहते हैं.
जो भस्म सांसारिक अग्नि से उत्पन्न होती है और धारण की जाती है उसे लौकिक कहा जाता है.
स्त्रोत तथा स्मार्त भस्म सिर्फ आत्म ज्ञानी ब्रह्मण एवं सन्यासियों कों ही धारण करना चाहिए लेकिन लौकिक भस्म सभी वर्ण के लोग धारण कर सकते हैं. लौकिक भस्म तांत्रिक मन्त्र या भगवान शिव का नाम लेके अपने शारीर पर धारण करना चाहिए. शिव पुराण में लिखा है की भगवान विष्णु, ब्रह्मा के साथ साथ सभी योगी, सिद्ध नाग आदि सभी भस्म धारण करते हैं एवं वेद का कथन है की बिना भस्म धारण किये सब प्रकार के आचार तथा पूजा निष्फल होते हैं. क्योंकि ऐसे मनुष्यों पर ना तो शिव जिसमें ही कृपा करते हैं और न ही उनका कोई कार्य ही सिद्ध होता है.
भस्म का महात्म अनादी तथा अनंत है. भस्म कों धारण करने में कुल और वर्ण का विचार नहीं होता है. भस्म धारण करने वाले मनुष्य कों तीर्थ के सामान समझना चाहिए. भस्म धारण करने वालों कों सम्पूर्ण विद्याओं का निधान समझना चाहिए.
जो मनुष्य भस्म धारण करने वालों की निंदा करता है वह अपने जन्म कों निष्फल कर देता है. पुरुष, स्त्री, बालक, वृद्ध और तरुण सभी भस्म धारण कर सकते हैं. भस्म धारण करने वाले कों अधिक पवित्रता की आवश्यकता नहीं है.
जिस ललाट पर भस्म न हो उसे धिक्कार है, जिस गाँव में शिव मंदिर न हो उसे भी धिक्कार है. सम्पूर्ण देवता मुनि येही कहते हैं की जो लोग भस्म की निंदा करते है वोह बहुत वर्षों तक नरक में निवास करते हैं. :
शरीर के अंगों पर भस्म कहाँ लगाएं:
सर, ललाट, कर्ण, नेत्र , नासिका, मुख, कंठ , भुजा, उदर, हाथ, छाती, पंजर, नाभि, मुस्क, त्रिबेली , दोनों जन्घो के मध्य का भाग, तथा चरण यह सब बत्तीस स्थान हैं लेकिन आम भक्तों के लिए सिर्फ मस्तक में नित्य त्रिपुंड लगाना ही गंगा स्नान करने के फल सामान है.
जो भी भक्त सावन के महीने में भी कम से कम नित्य भगवान शिवजी कों भस्म अर्पण कर के स्वयं अपने माथे में त्रिपुंड (भस्म) लगाये तो उसके पास हमेशा धन धन्य, स्वास्थ तथा ख़ुशी बानी रहती है.
सावन में एकादश रूद्र पूजा की विधि के लिए इस पृष्ठ कों पढ़ें: रूद्र पूजा महातम
Wednesday, 14 April 2010
जगतगुरु वामचार्य सेवक संजयनाथ द्वारा महा कुम्भ हरिद्वार में शाही स्नान संपन्न
जगतगुरु वामचार्य सेवक संजयनाथ द्वारा महा कुम्भ हरिद्वार में शाही स्नान आज संपन्न. गुरुनाथ अखाडा की पेशवाई ने आज महा कुम्भ के अंतिम शाही स्नान में चार चाँद लगा दिए. भक्त जानो का उल्लास और भीड़ देखने वाली और अपने आप में एक ऐतिहासिक घटना थी.
जगतगुरु वामचार्य की एक झलक पाने के लिए सभी श्रद्धालु जन अपने अपने पंडालों से बहार आ आ कर, भीड़ कों चीरते हुए उन्हें शाष्टांग दंडवत कर अपने आप कों सौभाग्यशाली बना रहे थे.
जगतगुरु वामचार्य महाराज की पेशवाई अपने आप में इतनी मनमोहक थी की गुरुनाथ अखाडा का नाम समस्त सनातन धर्म के बड़े बड़े अखाड़ो से कहीं पीछे नहीं रहा.
जगतगुरु वामचार्य की एक झलक पाने के लिए सभी श्रद्धालु जन अपने अपने पंडालों से बहार आ आ कर, भीड़ कों चीरते हुए उन्हें शाष्टांग दंडवत कर अपने आप कों सौभाग्यशाली बना रहे थे.
जगतगुरु वामचार्य महाराज की पेशवाई अपने आप में इतनी मनमोहक थी की गुरुनाथ अखाडा का नाम समस्त सनातन धर्म के बड़े बड़े अखाड़ो से कहीं पीछे नहीं रहा.
Friday, 9 April 2010
महा कुम्भ में गुरुनाथ अखाडा का खालसा
गुरुनाथ अखाडा के द्वारा गुरुनाथ अखाडा के सभी साधू संत एवं भक्तो के लिए महा कुम्भ के अवसर पर गौरी शंकर सेक्टर ब्लाक यू -151/152 प्लाट पर भक्तो के रहने एवं खाने पीने की व्यवस्था की गयी है।
आप सभी भक्तो कों गुरुनाथ अखाडा के जगतगुरु वामचार्य सेवक संजय नाथ महाराज द्वारा सादर आमंत्रित किया जा रहा है।
आप सभी भक्तो कों गुरुनाथ अखाडा के जगतगुरु वामचार्य सेवक संजय नाथ महाराज द्वारा सादर आमंत्रित किया जा रहा है।
गुरुनाथ अखाडा का खालसा अभी भी हरिद्वार महा कुम्भ में वास कर रहा है। भक्तजन वहा जा सकते है। जगतगुरु वामचार्य सेवक संजयनाथ महाराज जी से महा कुम्भ हरिद्वार में भेंट ५ अप्रैल २०१० से १८ अप्रैल २०१० तक की जा सकती है।
अधिक जानकारी के लिए संपर्क करें:
सेवक सौरभनाथ
फ़ोन नंबर - 09931004470
सेवक सौरभनाथ
फ़ोन नंबर - 09931004470
Thursday, 31 December 2009
रुद्राक्ष धारण करने में कोई भेद भाव नहीं
रुद्राक्ष के बारे में अनेक लेखकों ने अनेक बातें लिखी हैं, जैसे रुद्राक्ष धारण करने के बाद यह नहीं करना चाहिए या वह नहीं करना चाहिए यह गलत धारणा है। जिस प्रकार सदा शिव सभी वर्णों के देवता है और वह किसी से भेद भाव नहीं करते उसी प्रकार रुद्राक्ष धारण करने में भी कोई रोक टोक नहीं है। सभी वर्ण के लोग, बिना कुछ त्यागे ( खान पान ) रुद्राक्ष धारण कर सकते हैं, चाहे वह माँसाहारी हों या शाकाहारी।
अगले पोस्ट में रुद्राक्ष कों सिद्ध करने की विधि का इंतज़ार करे !!!
चौदह मुखी रुद्राक्ष का मनुष्यों पर अध्यात्मिक अथवा वैज्ञानिक प्रभाव
चौदह मुखी रुद्राक्ष के अध्यात्मिक प्रभाव -
चौदह मुखी रुद्राक्ष साक्षात् परम ब्रहम शिव का स्वरुप मन गया है। जितना प्रभाव एक मुखी रुद्राक्ष शरीरपर deta है उतना ही चौदह मुखी रुद्राक्ष भी देता है। जो व्यक्ति एक मुखी रुद्राक्ष या चौदह मुखी रुद्राक्ष धारण करता है उसे सदा शिव के सामान ही मानना चाहिए। ऐसे व्यक्ति किसी कों खुश होकर किसी कों आशीर्वाद दे या दुखी हो कर श्राप दे तो वह तुरंत फलित हो जाता है। उच्च्यकोटि के सन्यासियों , वाम मार्गियों एवं शिव तथा देवी भक्तों कों चौदह मुखी रुद्राक्ष अवश्य धारण करना चाहिए। जो साधक चौदह मुखी रुद्राक्ष धारण करके साधना करते है उनकी साधना अवश्य सिद्ध होती है।
चौदह मुखी रुद्राक्ष के वैज्ञानिक प्रभाव -
सभी असाध्य रोगों में इसका सेवन मधु या मक्खन के साथ लाभकारी सिद्ध होता है।
तेरह मुखी रुद्राक्ष का मनुष्यों पर अध्यात्मिक अथवा वैज्ञानिक प्रभाव
तेरह मुखी रुद्राक्ष के अध्यात्मिक प्रभाव -
इस रुद्राक्ष कों धारण करने वाले व्यक्तियों से भगवान् कामदेव सदा प्रसन्न रहते है। ऐसे व्यक्ति नामर्द नहीं होते हैं। यह रुद्राक्ष धारण करने वाले व्यक्ति सभी इक्षाओं कों पूर्ण करनेवाला तथा शुभ माना गया है।
तेरह मुखी रुद्राक्ष के वैज्ञानिक प्रभाव -
जितने भी प्रकार के चर्म सम्बंधित रोग के पीड़ित लोग होते है यदि वे इस रुद्राक्ष कों घिस कर नारियल तेल के साथ लगाये तो बहुत लाभी होता है।
बारह मुखी रुद्राक्ष का मनुष्यों पर अध्यात्मिक अथवा वैज्ञानिक प्रभाव
बारह मुखी रुद्राक्ष के अध्यात्मिक प्रभाव -
बारह मुखी रुद्राक्ष में द्वादश ज्योतिरलिंगों का वास होता है एवं भगवान् विष्णु भी इसमें वास करते हैं। इस रुद्राक्ष कों धारण करने से चारो धाम एवं बारह ज्योतिर्लिंगों के दर्शन का फल प्राप्त होता है।
बारह मुखी रुद्राक्ष के वैज्ञानिक प्रभाव -
इस रुद्राक्ष कों मधु के साथ घिस कर सेवन करने से लीवर सम्बंधित सभी रोगों में लाभ मिलता है
ग्यारह मुखी रुद्राक्ष का मनुष्यों पर अध्यात्मिक अथवा वैज्ञानिक प्रभाव
ग्यारह मुखी रुद्राक्ष के अध्यात्मिक प्रभाव -
यह रुद्राक्ष साक्षात् ग्यारह रूद्र के सामान माना गया है। सावन में ग्यारह मुखी रुद्राक्ष की पूजा करना लक्ष पार्थी पूजन के बराबर है। जो व्यक्ति इसे गले में धारण करते है उनकी कभी भी आकाल मृत्यु नहीं होती है।
ग्यारह मुखी रुद्राक्ष के वैज्ञानिक प्रभाव -
ग्यारह मुखी रुद्राक्ष मध् के साथ घिस के खाने से अस्थमा जैसी बीमारी में भी सबसे ज्यादा फायदा होता है एवं एक से दस मुखी रुद्राक्ष का सेवन जिन बीमारियों में काम आता है वह सभी का एक अकेले ग्यारह मुखी रुद्राक्ष के सेवन से लाभ मिल जाता है।
दस मुखी रुद्राक्ष का मनुष्यों पर अध्यात्मिक अथवा वैज्ञानिक प्रभाव
दस मुखी रुद्राक्ष के अध्यात्मिक प्रभाव -
दस मुखी रुद्राक्ष दसों महाविद्या के स्वरुप हैं एवं यमदेव का भी रूप कहा गया है। इसे केवल देखने से ही शांति प्राप्त होती है। इसे धारण करने से मिलने वाली शांति के विषय में तो कोई शंशय ही नहीं है। जो व्यक्ति इसे धारण करते हैं उन्हें यमराज नरक में नहीं ले जाते हैंसभी प्रकार के वाम मार्गियों कों दस मुखी रुद्राक्ष धारण करना चाहिए।
दस मुखी रुद्राक्ष के वैज्ञानिक प्रभाव -
अर्ध विक्षिप्त (पागल ) लोगों कों दस मुखी रुद्राक्ष घिस कर आवले के रस में देने से काफी फायदा देखा गया है।
एवं पेशाब सम्बन्धी किसी भी बीमारी में आवले के साथ घिस कर सेवन करने से यह बहुत लाभकारी साबित होता है।
नौ मुखी रुद्राक्ष का मनुष्यों पर अध्यात्मिक अथवा वैज्ञानिक प्रभाव
नौ मुखी रुद्राक्ष के अध्यात्मिक प्रभाव -
नौ मुखी रुद्राक्ष कों नौ शक्तियों का स्वरुप माना गया है। अतः इसे धारण करने से मनुष्य हर कार्य में सफल होता है एवं देवी साधको कों नौ मुखी रुद्राक्ष अवश्य पहनना चाहिए।
नौ मुखी रुद्राक्ष के वैज्ञानिक प्रभाव -
यह रुद्राक्ष शक्ति वर्धक रुद्राक्ष मन गया है। इसलिए किसी भी प्रकार के शारीरिक कमजोरी में इसका मधु के साथ सेवन करने से बहुत फायदा होता है।
आठ मुखी रुद्राक्ष का मनुष्यों पर अध्यात्मिक अथवा वैज्ञानिक प्रभाव
आठ मुखी रुद्राक्ष के अध्यात्मिक प्रभाव -
आठ मुखी रुद्राक्ष आठ वसुओं का रूप माना जाता है। इसे धारण करने से गंगा भी प्रसन्न होती हैं। और गंगा स्नान करने जैसा पुण्य मिलता है। यह अष्ट सिद्धियों कों प्रदान करता है।
आठ मुखी रुद्राक्ष के वैज्ञानिक प्रभाव -
यह जिस व्यक्ति कों किसी कार्य में मन नहीं लगता हो, हमेशा विचलित रहता हो, एकसाथ कई काम का शुरुवात करना तथा सभी में असफल रहना आदत हो, ऐसे व्यक्ति कों आठ मुखी रुद्राक्ष घिस कर मक्खन के साथ खाना चाहिए। जिस व्यक्ति कों लगातार गैस की शिकायत रहती हो वैसे व्यक्ति कों भी यह रुद्राक्ष घिस कर मधु के साथ सुबह शाम सेवन करना चाहिए।
सात मुखी रुद्राक्ष का मनुष्यों पर अध्यात्मिक अथवा वैज्ञानिक प्रभाव
सात मुखी रुद्राक्ष के अध्यात्मिक प्रभाव -
सात मुखी रुद्राक्ष ब्रह्मणि आदि सात लोक माताओं का स्वरुप माना जाता है। इस धारण करने से महान सम्पति तथा आरोग्य प्राप्त होता है। यदि इसे पवित्र भावना से धारण किया जाये तो आत्म ज्ञान की प्राप्ति होती है। सात रुद्राक्ष काम देव का सूचक है। कामुक लोग इसे अपनी काम वासना के लिए भी धारण करते हैं।
सात मुखी रुद्राक्ष के वैज्ञानिक प्रभाव -
जो बचछे बचपन से ही दुबले पतले होते है ऐसे बच्चो कों सात मुखी रुद्राक्ष मक्खन में घिस कर खिलाने से बच्चा स्वस्थ हो जाता है। एवं जो व्यक्ति नपुंसक होते हैं वे यदि सुबह शाम सात मुखी रुद्राक्ष कों मधु के साथ घिस कर सेवन करे तो काफी फायदा होता है।
छः मुखी रुद्राक्ष का मनुष्यों पर अध्यात्मिक अथवा वैज्ञानिक प्रभाव
छः मुखी रुद्राक्ष के अध्यात्मिक प्रभाव-
छः मुखी रुद्राक्ष साक्षात् भगवान् कार्तिके का स्वरुप है। इसे धारण करने वाले कों कभी भी धन की कमी नहीं होती। किसी भी प्रकार के व्यवसाय करने वाले व्यक्ति कों इसे धारण करना चाहिए। हर माता कों अपने बच्चे के गले में छः मुखी रुद्राक्ष जरूर धारण करवाना चाहिए, इस से बच्चा वीर तथा रोग मुक्त होता है।
इसे धारण करने वाले व्यक्ति कों सुंदर मति, ज्ञान, संपत्ति तथा पवित्रता प्राप्त होती है।
छः मुखी रुद्राक्ष के वैज्ञानिक प्रभाव -
जिस व्यक्ति का रक्तचाप किसी भी दावा से काम न होता होत ऐसे व्यक्ति कों छः मुखी रुद्राक्ष घिस कर मधु के साथ चटाने से जादू के सामान प्रभाव होता है। एक साल से अधिक उम्र के बच्चे कों लगातार पांच साल तक छः मुखी रुद्राक्ष घिस कर मधु के साथ चटाने से ऐसा बच्चा विद्वान एवं स्वस्थ होता है।
पंचमुखी रुद्राक्ष का मनुष्यों पर अध्यात्मिक अथवा वैज्ञानिक प्रभाव
पांच मुखी रुद्राक्ष के अध्यात्मिक प्रभाव -
पांच मुखी रुद्राक्ष पंचमुखी शिव का स्वरुप होता है। इसे धारण करने से भगवान शिव की कृपा से धारण करनेवाले के हाथ से कभी किसी व्यक्ति की हत्या नहीं होती।
पंचमुखी रुद्राक्ष कों कलान्गनिक रुद्राक्ष के नाम से भी जाना जाता है। जो व्यक्ति पंचमुखी रुद्राक्ष धारण करते है वोह पर स्त्री गमन के पाप से मुक्त हो जाते हैं।
पांच मुखी रुद्राक्ष के वैज्ञानिक प्रभाव -
गुप्त इन्द्रिय सम्बंधित कोई भी बीमारी से पीड़ित व्यक्ति यदि पंचमुखी रुद्राक्ष के लेप कों मक्खन या नारियल के तेल में मिला के लगाने से फायदा होता है। एवं इसे मध् के साथ घिस के चाटने पर गुप्त इन्द्रियां सम्बंधित बिमारियों का नाश होता है।
Sunday, 27 December 2009
चार मुखी रुद्राक्ष का मनुष्यों पर आध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक प्रभाव
चार मुखी रुद्राक्ष का आध्यात्मिक प्रभाव -
चार मुखी रुद्राक्ष शाक्षात ब्रह्मा का स्वरुप है। इसके धारण करने से मनुष्य ब्रहम हत्या से मुक्त हो जाता है। जो साधक चार मुखी रुद्राक्ष कों धारण करते हैं वह दिमाग से तेज़ होते हैं।
चार मुखी रुद्राक्ष का वैज्ञानिक प्रभाव -
जो बच्चे दिमाग से कमजोर होते है या जिनकी याददाश्त कमजोर होत जातीहै , वैसे व्यक्तियों कों चार मुखी रुद्राक्ष घिस के मध् के साथ खिलने से फायदा होता है।
तीन मुखी रुद्राक्ष का मनुष्यों के ऊपर अध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक प्रभाव
तीन मुखी रुद्राक्ष का आध्यात्मिक प्रभाव -
जो व्यक्ति तीनमुखी रुद्राक्ष धारण करते हैं उनकी धन तथा आयु की वृद्धि होती है, एवं स्त्री हत्या का पाप नष्ट हो जाता है। साथ ही साथ तीन मुखी रुद्राक्ष त्रिदेव का सूचक है। जो व्यक्ति इसे धारण या इसकी पूजा करते हैं उनपे ब्रह्मा , विष्णु तथा महेश सदैव प्रसन्न रहते हैं।
तीन मुखी रुद्राक्ष का वैज्ञानिक प्रभाव-
जिस व्यक्ति कों हर तीन दिन पर बुखार आता हो ऐसे व्यक्ति कों तीन मुखी रुद्राक्ष धारण करने से ज्वर ख़तम हो जाता है। यदि रक्त चाप भी अधिक हो तो वैसे व्यक्ति कों तीन मुखी रुद्राक्ष धारण करना चाहिए एवं एक तीनमुखी रुद्राक्ष कों घिस कर मध् के साथ सेवन करना चाहिए। इस से उच्च रक्त चाप ठीक हो जाता है।
यदि रोगी की बीमारी पकड़ में ना आये तो ऐसे रोगियों कों भी तीन मुखी रुद्राक्ष घिस कर सेवन करने से आराम आता है।
दो मुखी रुद्राक्ष का मनुष्यों के ऊपर अध्यात्मिक एवं वैज्ञानिक प्रभाव
दो मुखी रुद्राक्ष का अध्यात्मिक प्रभाव -
दो मुखी रुद्राक्ष साक्षात् भगवान अर्ध नागेश्वर का स्वरुप है। जो लोग दोमुखी रुद्राक्ष धारण करते हैं या उसकी नित्य पूजा करते हैं वह गौ वध पाप से मुक्त हो जाते हैं तथा सभी मनोरथ पूरे हो जाते हैं। ऐसा भी देखा गया है की जो सुहागन औरते दो मुखी रुद्राक्ष धारण करती हैं वे सदा सुहागन ही मृत्यु कों प्राप्त करती हैं।
ऐसे व्यक्ति जो दोमुखी रुद्राक्ष धारण करते है या उसकी पूजा करते हैं उनके घर में सभी प्रकार की सामग्रियां उपस्थित रहती हैं। जो साधक शिव शक्ति की आराधना करते हैं ऐसे साधको कों दो मुखी रुद्राक्ष अवश्य धारण करना चाहिए।
दोमुखी रुद्राक्ष का वैज्ञानिक प्रभाव -
दो मुखी रुद्राक्ष कों घिस कर मध् के साथ सेवन करने से लकवा से पीड़ित रोगियों कों फायदा होता है तथा रक्त दोषों कों दूर करता है।
Saturday, 26 December 2009
रुद्राक्ष का मनुष्यों पर प्रभाव- एक मुखी रुद्राक्ष महातम
रुद्राक्ष की उत्त्पत्ति रूद्र देव के आंसुओं से हुई है। रुद्राक्ष का प्रयोग दो रूपों में किया जाता है। एक आध्यात्मिक और दूसरा वैज्ञानिक और स्वास्थवर्धक।
रुद्राक्ष एक से ले कर चौदह मुख तक होता है। आध्यात्मिक मान्यता है की भगवान् शिव के जितने रूद्र अवतार हुए हैं उतने ही मुख के रुद्राक्ष पाए जाते हैं।
रुद्राक्ष के वृक्ष से रुद्राक्ष पाया जाता है। सबसे उत्तम रुद्राक्ष आवले के आकार का होता है। छोटे बेर के आकार वाले रुद्राक्ष कों मध्य श्रेणी का मन जाता है। एवं मोती के दाने के सामान छोटे आकार वाले रुद्राक्ष कों निम्न श्रेणी का माना जाता है। दुनिया के सबसे उत्तम रुद्राक्ष नेपाल में पाए जाते हैं। रुद्राक्ष भारत, मलेसिया तथा इंडोनेसिया में भी पाए जाते हैं।
रुद्राक्ष चार वर्ण (रंग) के होते हैं - उजला, पीला, लाल और काला।
उजला रुद्राक्ष ब्राह्मणों के धारण करने के लिए श्रेष्ठ होता है।
पीला रुद्राक्ष क्षत्रियों के लिए श्रेष्ठ माना गया है।
लाल रुद्राक्ष वैयेश्यों के लिए श्रेष्ठ माना गया है और काला शुद्र्रो के लिए माना गया है।
जबकि लाल रुद्राक्ष सभी वर्णों के लिए श्रेष्ठ है तथा शिव कों भी अति प्रिय है।
एक मुखी रुद्राक्ष के अध्यात्मिक प्रभाव -
शास्त्रों में एवं शिव पुराण में एक मुखी रुद्राक्ष कों शिव का साक्षात् रूप माना गया है। कहा गया है की जो भक्त इसे धारण करते हैं वह स्वयं शिव तुल्य होत जाते है। उनके इर्द गिर्द अष्ट सिद्धियाँ भ्रमण करती रहती हैं। जो व्यक्ति एकमुखी रुद्राक्ष धारण करते हैं वह मोक्ष कों प्राप्त करते है और जन्म जन्म के चक्कर से मुक्त होत जाते है। तथा शिव लोक में वास करते है।
गोलेकार एकमुखी रुद्राक्ष कों धारण करने वाले लोग बिना किसी कठिन साधना किये ही मंवांचित सिद्धियाँ प्राप्त कर लेते हैं। सभी भक्तों कों यह बताना चाहता हूँ की जो बाज़ार में काजू के सामान लम्बे रुद्राक्ष मिलते हैं वह सही में रुद्राक्ष नहीं होते। साथ ही साथ यह भी बताना चाहता हूँ की रुद्राक्ष जितने मुखी होते हैं उतने ही बीज उन्हें फोड़ने के बाद उनमे से निकलते हैं। यही रुद्राक्ष की सही पहचान का एकमात्र साधन है।
शास्त्रों में वर्णित है की एक मुखी रुद्राक्ष धारण करने वाले व्यक्ति कों कभी भी धन धान की कमी नहीं होती है और आकस्मित मौत भी नहीं हो सकती.
एक मुखी रुद्राक्ष के वैज्ञानिक प्रभाव -
जो व्यक्ति पागल हो जाते हैं वैसे व्यक्ति कों एकमुखी रुद्राक्ष घिस कर मक्खन के साथ सुबह शाम देने से उसका मानसिक संतुलन ठीक होत जाता है।
जो व्यक्ति कोमा में चले जाते हैं वैसे व्यक्ति कों एक मुखी रुद्राक्ष का एक बीज निकाल कर, पीस कर पिलाने से वह कोमा से बहार आ जाते हैं। शास्त्रों में जिक्र है की जो व्यक्ति एक मुखी रुद्राक्ष धारण करता है उसे ह्रदय गति का रोग कभी नहीं हो सकता है।
रुद्राक्ष एक से ले कर चौदह मुख तक होता है। आध्यात्मिक मान्यता है की भगवान् शिव के जितने रूद्र अवतार हुए हैं उतने ही मुख के रुद्राक्ष पाए जाते हैं।
रुद्राक्ष के वृक्ष से रुद्राक्ष पाया जाता है। सबसे उत्तम रुद्राक्ष आवले के आकार का होता है। छोटे बेर के आकार वाले रुद्राक्ष कों मध्य श्रेणी का मन जाता है। एवं मोती के दाने के सामान छोटे आकार वाले रुद्राक्ष कों निम्न श्रेणी का माना जाता है। दुनिया के सबसे उत्तम रुद्राक्ष नेपाल में पाए जाते हैं। रुद्राक्ष भारत, मलेसिया तथा इंडोनेसिया में भी पाए जाते हैं।
रुद्राक्ष चार वर्ण (रंग) के होते हैं - उजला, पीला, लाल और काला।
उजला रुद्राक्ष ब्राह्मणों के धारण करने के लिए श्रेष्ठ होता है।
पीला रुद्राक्ष क्षत्रियों के लिए श्रेष्ठ माना गया है।
लाल रुद्राक्ष वैयेश्यों के लिए श्रेष्ठ माना गया है और काला शुद्र्रो के लिए माना गया है।
जबकि लाल रुद्राक्ष सभी वर्णों के लिए श्रेष्ठ है तथा शिव कों भी अति प्रिय है।
एक मुखी रुद्राक्ष के अध्यात्मिक प्रभाव -
शास्त्रों में एवं शिव पुराण में एक मुखी रुद्राक्ष कों शिव का साक्षात् रूप माना गया है। कहा गया है की जो भक्त इसे धारण करते हैं वह स्वयं शिव तुल्य होत जाते है। उनके इर्द गिर्द अष्ट सिद्धियाँ भ्रमण करती रहती हैं। जो व्यक्ति एकमुखी रुद्राक्ष धारण करते हैं वह मोक्ष कों प्राप्त करते है और जन्म जन्म के चक्कर से मुक्त होत जाते है। तथा शिव लोक में वास करते है।
गोलेकार एकमुखी रुद्राक्ष कों धारण करने वाले लोग बिना किसी कठिन साधना किये ही मंवांचित सिद्धियाँ प्राप्त कर लेते हैं। सभी भक्तों कों यह बताना चाहता हूँ की जो बाज़ार में काजू के सामान लम्बे रुद्राक्ष मिलते हैं वह सही में रुद्राक्ष नहीं होते। साथ ही साथ यह भी बताना चाहता हूँ की रुद्राक्ष जितने मुखी होते हैं उतने ही बीज उन्हें फोड़ने के बाद उनमे से निकलते हैं। यही रुद्राक्ष की सही पहचान का एकमात्र साधन है।
शास्त्रों में वर्णित है की एक मुखी रुद्राक्ष धारण करने वाले व्यक्ति कों कभी भी धन धान की कमी नहीं होती है और आकस्मित मौत भी नहीं हो सकती.
एक मुखी रुद्राक्ष के वैज्ञानिक प्रभाव -
जो व्यक्ति पागल हो जाते हैं वैसे व्यक्ति कों एकमुखी रुद्राक्ष घिस कर मक्खन के साथ सुबह शाम देने से उसका मानसिक संतुलन ठीक होत जाता है।
जो व्यक्ति कोमा में चले जाते हैं वैसे व्यक्ति कों एक मुखी रुद्राक्ष का एक बीज निकाल कर, पीस कर पिलाने से वह कोमा से बहार आ जाते हैं। शास्त्रों में जिक्र है की जो व्यक्ति एक मुखी रुद्राक्ष धारण करता है उसे ह्रदय गति का रोग कभी नहीं हो सकता है।
Saturday, 19 September 2009
विश्व भर के श्रधालुओं के लिए सेवक संजयनाथ तांत्रिक काली मन्दिर में सामूहिक रूप से ६०१ कलश की स्थापना संपन्न
सेवक संजयनाथ तांत्रिक काली मन्दिर रक्सौल में सामूहिक रूप से ६०१ कलश की स्थापना संपन्न हुई। जो की एक विश्व रिकॉर्ड है। एक ही प्रान्गंड में ६०१ भक्तो के ओरसे दसहरा की पूजा में दस महाविद्या देवियों की आराधना हेतु ६०१ कलश दिनांक १८ सितम्बर २००९ को स्थापित हुए। इस प्रकार मन्दिर ने स्वयं अपने ही ५५१ कलश स्थापना के पुराने रिकॉर्ड को इस बार तोड़ दिया। विश्व में यह पहला ऐसा मन्दिर है जहा एकसाथ इतने कलशो की स्थापना होती है और भक्तजन एक साथ माँ काली की दसहरा में आराधना करते हैं।
चाइना, जर्मनी, अमेरिका, इंग्लैंड, श्रीलंका, नेपाल, ऑस्ट्रेलिया, मौरिसिअस जैसे देशों से भी श्रधालुओं ने कलश स्थापना करवाए। ओर भारत देश के भी सभी कोनो से भक्तो ने कलश स्थापना करवाया। बिहार, बंगाल, महारास्त्र, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, पंजाब , तमिल नाडू, कर्नाटक आदि राज्यों से भक्तो ने दस महाविद्या साधना करने के लिए कलश स्थापित करवाए।
इन सभी ६०१ भक्तो के लिए मन्दिर और ट्रस्ट के कार्यकर्ताओं ने मात्र २०१ रुपए में दसहरा के दसो दिनों की पूजा की पूरी व्यवस्था की है।
चाइना, जर्मनी, अमेरिका, इंग्लैंड, श्रीलंका, नेपाल, ऑस्ट्रेलिया, मौरिसिअस जैसे देशों से भी श्रधालुओं ने कलश स्थापना करवाए। ओर भारत देश के भी सभी कोनो से भक्तो ने कलश स्थापना करवाया। बिहार, बंगाल, महारास्त्र, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, पंजाब , तमिल नाडू, कर्नाटक आदि राज्यों से भक्तो ने दस महाविद्या साधना करने के लिए कलश स्थापित करवाए।
इन सभी ६०१ भक्तो के लिए मन्दिर और ट्रस्ट के कार्यकर्ताओं ने मात्र २०१ रुपए में दसहरा के दसो दिनों की पूजा की पूरी व्यवस्था की है।
दसहरा के अवसर पर दस महाविद्या की देवियों की तांत्रिक आराधना कैसे करें?
दसहरा के नवरात्र पूजा भारत में एक बहुत ही प्रमुख पर्व है। इसे काली पूजा, दुर्गा पूजा इत्यादी नामो से जाना जाता है। इन दस दिन में दस महाविद्या की दसो देवियों की दसो दिशाओं में पूजा की जाती है।
ऐसा करने से दस महाविद्या की दसो देवियाँ प्रसन्न होती हैं तथा भक्तो और साधको को सभी कष्टों से उबारती हैं।
अपने पूर्व लेखों में मैंने दस महाविद्या की दसों देवियों की नवरात्र में प्रतेक दिन कैसे आराधना करनी है उसका वर्णन किया था। मैं एक बार फ़िर दस महा विद्या पूजा का महात्म आप सभी को बताना चाहता हूँ।
माँ काली दसो दिशाओं में दस महा विद्या के रूप में वास करती है। इसी लिए दुर्गा सप्तशती के प्रथम अध्याय में माँ काली के दस मुख, दस हाथो और दस पैरों का वर्णन है। दस महा विद्या की दस देवियाँ मनुष्य की सभी प्रकार की कामनाओं की पूर्ति करती हैं।
माँ काली काल को हरती हैं
माँ तारा पापों से मनुष्यों को तारती हैं।
माँ भुवनेश्वरी हमें भुवन के सभी सुख प्राप्त करने का आर्शीवाद देती हैं।
माँ षोडशी हमारे यौवन को सदा बना रखती हैं।
माँ छिन्मस्तिका मनुष्य के मस्तिक्ष की चिंताओं को हरती है तथा मति प्रदान करती हैं।
माँ भैरवी सभी प्रकार के भ्रम दूर करती है तथा शक्ति प्रदान करती हैं।
माँ धूमावती हमारे जीवन की धुंध को दूर करती हैं
माँ बगलामुखी सभी दुश्मनों का मर्दन करती हैं।
माँ मातंगी मातृत्व का सुख प्रदान करती हैं।
माँ कमला सभी प्रकार के सुख समृधि प्रदान करती हैं।
दस महा विद्या की देवियों की इन दस दिनों में किस प्रकार साधना करनी है उसके लिए निम्न लेखो को पढे.
१ प्रथम दिन - माँ काली http://merivaanimerajeevan.blogspot.com/2009/03/blog-post_27.html
२ दूसरा दिन - माँ तारा http://merivaanimerajeevan.blogspot.com/2009/03/blog-post_3376.html
३ तीसरा दिन - माँ भुवनेश्वरी http://merivaanimerajeevan.blogspot.com/2009/03/blog-post_8850.html
४ चौथा दिन - माँ षोडशी http://merivaanimerajeevan.blogspot.com/2009/03/blog-post_28.html
५ पांचवा दिन - माँ छिन्मस्तिका http://merivaanimerajeevan.blogspot.com/2009/03/blog-post_29.html
६ छठा दिन - माँ भैरवी http://merivaanimerajeevan.blogspot.com/2009/03/blog-post_30.html
७ सातवाँ दिन - माँ धूमावती http://merivaanimerajeevan.blogspot.com/2009/03/blog-post_7290.html
८ आठवा दिन - माँ बगलामुखी http://merivaanimerajeevan.blogspot.com/2009/03/blog-post_5568.html
९ नौवा दिन - माँ मातंगी http://merivaanimerajeevan.blogspot.com/2009/03/blog-post_6393.html
१० दसवां दिन - माँ कमला http://merivaanimerajeevan.blogspot.com/2009/03/blog-post_7899.html
ऐसा करने से दस महाविद्या की दसो देवियाँ प्रसन्न होती हैं तथा भक्तो और साधको को सभी कष्टों से उबारती हैं।
अपने पूर्व लेखों में मैंने दस महाविद्या की दसों देवियों की नवरात्र में प्रतेक दिन कैसे आराधना करनी है उसका वर्णन किया था। मैं एक बार फ़िर दस महा विद्या पूजा का महात्म आप सभी को बताना चाहता हूँ।
माँ काली दसो दिशाओं में दस महा विद्या के रूप में वास करती है। इसी लिए दुर्गा सप्तशती के प्रथम अध्याय में माँ काली के दस मुख, दस हाथो और दस पैरों का वर्णन है। दस महा विद्या की दस देवियाँ मनुष्य की सभी प्रकार की कामनाओं की पूर्ति करती हैं।
माँ काली काल को हरती हैं
माँ तारा पापों से मनुष्यों को तारती हैं।
माँ भुवनेश्वरी हमें भुवन के सभी सुख प्राप्त करने का आर्शीवाद देती हैं।
माँ षोडशी हमारे यौवन को सदा बना रखती हैं।
माँ छिन्मस्तिका मनुष्य के मस्तिक्ष की चिंताओं को हरती है तथा मति प्रदान करती हैं।
माँ भैरवी सभी प्रकार के भ्रम दूर करती है तथा शक्ति प्रदान करती हैं।
माँ धूमावती हमारे जीवन की धुंध को दूर करती हैं
माँ बगलामुखी सभी दुश्मनों का मर्दन करती हैं।
माँ मातंगी मातृत्व का सुख प्रदान करती हैं।
माँ कमला सभी प्रकार के सुख समृधि प्रदान करती हैं।
दस महा विद्या की देवियों की इन दस दिनों में किस प्रकार साधना करनी है उसके लिए निम्न लेखो को पढे.
१ प्रथम दिन - माँ काली http://merivaanimerajeevan.blogspot.com/2009/03/blog-post_27.html
२ दूसरा दिन - माँ तारा http://merivaanimerajeevan.blogspot.com/2009/03/blog-post_3376.html
३ तीसरा दिन - माँ भुवनेश्वरी http://merivaanimerajeevan.blogspot.com/2009/03/blog-post_8850.html
४ चौथा दिन - माँ षोडशी http://merivaanimerajeevan.blogspot.com/2009/03/blog-post_28.html
५ पांचवा दिन - माँ छिन्मस्तिका http://merivaanimerajeevan.blogspot.com/2009/03/blog-post_29.html
६ छठा दिन - माँ भैरवी http://merivaanimerajeevan.blogspot.com/2009/03/blog-post_30.html
७ सातवाँ दिन - माँ धूमावती http://merivaanimerajeevan.blogspot.com/2009/03/blog-post_7290.html
८ आठवा दिन - माँ बगलामुखी http://merivaanimerajeevan.blogspot.com/2009/03/blog-post_5568.html
९ नौवा दिन - माँ मातंगी http://merivaanimerajeevan.blogspot.com/2009/03/blog-post_6393.html
१० दसवां दिन - माँ कमला http://merivaanimerajeevan.blogspot.com/2009/03/blog-post_7899.html
Thursday, 28 May 2009
वामा खेपा की लीला...
काली पूजा की रात में वामा का अभिषेक कैलाशपति बाबा द्वारा हुआ। सिद्ध मंत्र पा कर वामा खेपा बिल्कुल उलट पलट हो गए। वह हमेशा शीमल वृक्ष के नीचे बैठ कर जाप किया करते,परन्तु हमेशा अजीब अजीब आवाजें बिन बादल गर्जन होना, मरे बच्चो की कूदफांद, कान के पास गरम साँस का महसूस होना जैसी घटनाये वामा को और चंचल कर देती थी। शिव चतुर्दशी के दिन गुरुदेव का आदेश पा कर वामा फ़िर अपने आसन पर बैठे और सिद्ध बीज मंत्र का जाप शुरू किया। सुबह से शाम हो गई पर वामा तब भी तन्मय हो कर देवी माँ तारा के ध्यान में लगे रहे। रात बढ़ने लगी और घोर अन्धकार हो गया, वातावरण पूरा शांत था। रात में २ बजे के बाद वामा का शरीर कापने लगा और पूरा शमशान फूलो की महक से सुगन्धित हो उठा। अचानक आकाश से नीले प्रकाश की ज्योति फुट पड़ी। चारो तरफ़ प्रकाश ही प्रकाश हो गया और प्रकाश के बीचों बीच तारा माँ ने वामा खेपा को दर्शन दिए।
उस भव्य और सुंदर देवी को देख कर आनंद में वामा सबकुछ भूल गए। इतनी कम उम्र में वामा को माँ का दर्शन होना सिर्फ़ भक्ति और विश्वास के कारण था। सबने शमशान में प्रकाश देखा पर माँ के दर्शन तो सिर्फ़ वामा खेपा को ही हुए, तब से वाम देव जगत में पूज्य हो गए। तारापीठ के महंत मोक्षानंद पहले से ही वामा की महानता को जानते और इसलिए ही उन्होंने वामा को अपना शिष्य बनाया था। मोक्षानंद के मरने के बाद १८ वर्ष की उम्र में ही वामा चरण को तारापीठ का पीठाधीश बना दिया गया।
एक बार द्वारका नदी में स्नान करते समय उन्हे द्वारका नदी के उस पार राम नाम की ध्वनि सुनाई दी। कुछ देर बाद उन्होंने देखा की कुछ लोग घाट के उस पार एक शव ले कर आए हैं। वामा ने उत्सुकता वश वह शव देखा तो पता चला की वह उनकी माँ का ही शव था। माँ का शव देखते ही वह माँ माँ कह कर चिल्लाने लगे। कुछ भक्तो ने वामा चरण को सान्तवना दिया। वामा की इक्षा थी की उनकी माँ का शव माँ तारा के शमशान में ही जलाया जाए।
परन्तु बरसात के दिन थे और शव को नदी के दुसरे पार तारा शमशान तक ले जाना नामुमकिन था। सभी लोगों ने बामा खेपा को समझाया औरघाट के इस पार ही क्रिया कर्म करने की सलाह दी। परन्तु वामा खेपा माँ तारा का नाम लेते हुए अपनी माँ का शव अपने पीठ पर ले कर नदी को पैदल ही पार कर गए। और अंत में उन्होंने अपनी माँ का अन्तिम संस्कार माँ तारा के शमशान में पूरा किया।
उनके माँ के श्राद्ध का दिन नज़दीक आने लगा था। वह अपने गाव आतला गए। श्राद्ध से तीन दिन पहले वह पहुँच कर उन्होंने अपने छोटे भाई राम चरण से कहा की माँ के श्राद्ध के लिए घर के सामने वाली जमीन को साफ़ सुथरा कर दो, तथा आस पास के गाव के लोगों को निमंत्रण दे आओ। राम चरण ने अपने पागल भाई की बात पर ध्यान नही दिया और उनसे कहा की अभी तो हम स्वयं कष्ट में हैं। ऐसी हालत में हम लोगों को कहा से खिलाएंगे?
राम चरण के मना करने के बाद वामा खेपा ने स्वयं जमीन अपने हाथों से साफ़ की और वापस शमशान चले गए।
श्राद्ध वाले दिन अपने आप बडे बडे राजा महाराजों ने वामा के घर अपने आप अन्न और भोजन का सामन भेजनाशुरू कर दिया। यह देख कर राम चरण दंग रह गए और उन्हे तब अपने भाई की शक्ति का एहसास हुआ।
शाम को ब्रह्मण भोज के समय अचानक से मुसलाधार वर्षा होने लगी। राम चरण यह देख कर रोने लगे और इश्वर को याद करने लगे। तब तक वामा खेपा वह पहुंचे। उन्हे देखते ही राम चरण अपने भाई के चरण पकड़ कर रोने लगे। उन्होंने कहा की इतनी तेज़ बारिश में ब्रह्मण कैसे भोजन कर पाएंगे? तब वामा खेपा ने अपने शमशान का डंडा आकाश की तरफ़ कर दिया। और मुसलाधार बारिश होने के बाद भी ब्रह्मण भोज की जगह एक बूँद पानी नही गिरा। और उनकी माँ का श्राद्ध बिना किसी रूकावट के संपन्न हुआ। यह देख कर सभी चकित रह गए और वामा खेपा की शक्ति को प्रणाम करने लगे। अब ब्राह्मणों को अपने घर भी वापस जाना था, परन्तु बारिश काफी तेज़ पड़ रही थी। तब वामा खेप ने आकाश में चिल्लाते हुए माँ तारा से कहा की हे माँ क्या तू भी बाप के सामान कठोर हो गई है!! उनके इतना कहते ही ब्राह्मणों के घर जाने के मार्गो पर बारिश पड़ना बंद हो गया।
वामा खेपा शमशान में माँ तारा की पूजा अर्चना करते थे।वह रोज माँ को भोग लगते थे और माँ स्वयं आकर उनका भोग ग्रहण करती थी। एक दिन उन्होंने माँ को भोग लगाया परन्तु माँ नही आई। क्रोधित हो कर वामा ने माँ की मूर्ती पर मूत्र कर दिया। ऐसा करते देख मन्दिर के बाकि लोगों ने देख लिया। उन लोगों को बहुत बुरा लगा और उन्होंने रानी से वामा के इस घटना की शिकायत कर दी। रानी ने क्रोधित हो कर अपने दरबानों को आदेश दिया और वामा को पीट कर मन्दिर से बहार निकल फेंका। वामा को शमशान में फेंक दिया। फ़िर रानी ने दुसरे पंडित को माँ का भोग लगाने का कार्य दे दिया। चार दिन तक वामा खेपा शमशान में बिना कुछ खाए पिए पड़े रहे।
तब चार दिन के उपरांत माँ तारा ने रानी को अर्ध चैतन्य अवस्था में दर्शन दिए और कहा की रानी मैंने चार दिनों से भोग ग्रहण नही किया है। तब रानी ने चकित होकर माँ से कहा की हे माँ आपको तो रोज़ भोग लगता है। माँ तारा ने कहा की मेरा एक पागल बेटा है जिसे तुम्हारे दरबानों ने पीट कर बहार फेंक दिया। उसने भी चार दिनों से कुछ नही खाया है। अतः मैंने भी चार दिन से उपवास किया है। इसपर रानी बोली। " माँ उस व्यक्ति ने आप की मूर्ति पर मूत्र कर दिया था इसलिए मैंने उसे दंड दिया"। इस पर माँ तारा बोली यदि बालक अपनी माँ पर मूत्र कर दे तो क्या माँ उसे दंड देती है? वह मेरा बेटा है। वह मुझपर मूत्र करे या फ़िर मुझे मारे तुम्हे दंड देना का अधिकार नही है।यदि अपने राज्य का भला चाहती हो तो सम्मानपूर्वक मेरे बेटे को वापस लाओ। और आजके बाद वामा को पहले भोग लगेगा तब ही मैं भोग ग्रहण करुँगी। ऐसा कह कर माँ अंतर्ध्यान हो गई।तब रानी ने वामा खेपा को आदरसहित मन्दिर में बुलाया। तब से हमेशा वामा खेपा को भोग लगने लगा और तब ही माँ तारा भोग ग्रहण करती थी।
इस प्रकार वामा खेप के जीवन में अनेको चमत्कार होते रहे। वामा खेपा के पहले वाम मार्ग एकदम विलुप्त हो रहा था। परन्तु उनकी भक्ति और चमत्कारों की वजह से वाम मार्ग को प्रसिद्धि मिली।
उस भव्य और सुंदर देवी को देख कर आनंद में वामा सबकुछ भूल गए। इतनी कम उम्र में वामा को माँ का दर्शन होना सिर्फ़ भक्ति और विश्वास के कारण था। सबने शमशान में प्रकाश देखा पर माँ के दर्शन तो सिर्फ़ वामा खेपा को ही हुए, तब से वाम देव जगत में पूज्य हो गए। तारापीठ के महंत मोक्षानंद पहले से ही वामा की महानता को जानते और इसलिए ही उन्होंने वामा को अपना शिष्य बनाया था। मोक्षानंद के मरने के बाद १८ वर्ष की उम्र में ही वामा चरण को तारापीठ का पीठाधीश बना दिया गया।
एक बार द्वारका नदी में स्नान करते समय उन्हे द्वारका नदी के उस पार राम नाम की ध्वनि सुनाई दी। कुछ देर बाद उन्होंने देखा की कुछ लोग घाट के उस पार एक शव ले कर आए हैं। वामा ने उत्सुकता वश वह शव देखा तो पता चला की वह उनकी माँ का ही शव था। माँ का शव देखते ही वह माँ माँ कह कर चिल्लाने लगे। कुछ भक्तो ने वामा चरण को सान्तवना दिया। वामा की इक्षा थी की उनकी माँ का शव माँ तारा के शमशान में ही जलाया जाए।
परन्तु बरसात के दिन थे और शव को नदी के दुसरे पार तारा शमशान तक ले जाना नामुमकिन था। सभी लोगों ने बामा खेपा को समझाया औरघाट के इस पार ही क्रिया कर्म करने की सलाह दी। परन्तु वामा खेपा माँ तारा का नाम लेते हुए अपनी माँ का शव अपने पीठ पर ले कर नदी को पैदल ही पार कर गए। और अंत में उन्होंने अपनी माँ का अन्तिम संस्कार माँ तारा के शमशान में पूरा किया।
उनके माँ के श्राद्ध का दिन नज़दीक आने लगा था। वह अपने गाव आतला गए। श्राद्ध से तीन दिन पहले वह पहुँच कर उन्होंने अपने छोटे भाई राम चरण से कहा की माँ के श्राद्ध के लिए घर के सामने वाली जमीन को साफ़ सुथरा कर दो, तथा आस पास के गाव के लोगों को निमंत्रण दे आओ। राम चरण ने अपने पागल भाई की बात पर ध्यान नही दिया और उनसे कहा की अभी तो हम स्वयं कष्ट में हैं। ऐसी हालत में हम लोगों को कहा से खिलाएंगे?
राम चरण के मना करने के बाद वामा खेपा ने स्वयं जमीन अपने हाथों से साफ़ की और वापस शमशान चले गए।
श्राद्ध वाले दिन अपने आप बडे बडे राजा महाराजों ने वामा के घर अपने आप अन्न और भोजन का सामन भेजनाशुरू कर दिया। यह देख कर राम चरण दंग रह गए और उन्हे तब अपने भाई की शक्ति का एहसास हुआ।
शाम को ब्रह्मण भोज के समय अचानक से मुसलाधार वर्षा होने लगी। राम चरण यह देख कर रोने लगे और इश्वर को याद करने लगे। तब तक वामा खेपा वह पहुंचे। उन्हे देखते ही राम चरण अपने भाई के चरण पकड़ कर रोने लगे। उन्होंने कहा की इतनी तेज़ बारिश में ब्रह्मण कैसे भोजन कर पाएंगे? तब वामा खेपा ने अपने शमशान का डंडा आकाश की तरफ़ कर दिया। और मुसलाधार बारिश होने के बाद भी ब्रह्मण भोज की जगह एक बूँद पानी नही गिरा। और उनकी माँ का श्राद्ध बिना किसी रूकावट के संपन्न हुआ। यह देख कर सभी चकित रह गए और वामा खेपा की शक्ति को प्रणाम करने लगे। अब ब्राह्मणों को अपने घर भी वापस जाना था, परन्तु बारिश काफी तेज़ पड़ रही थी। तब वामा खेप ने आकाश में चिल्लाते हुए माँ तारा से कहा की हे माँ क्या तू भी बाप के सामान कठोर हो गई है!! उनके इतना कहते ही ब्राह्मणों के घर जाने के मार्गो पर बारिश पड़ना बंद हो गया।
वामा खेपा शमशान में माँ तारा की पूजा अर्चना करते थे।वह रोज माँ को भोग लगते थे और माँ स्वयं आकर उनका भोग ग्रहण करती थी। एक दिन उन्होंने माँ को भोग लगाया परन्तु माँ नही आई। क्रोधित हो कर वामा ने माँ की मूर्ती पर मूत्र कर दिया। ऐसा करते देख मन्दिर के बाकि लोगों ने देख लिया। उन लोगों को बहुत बुरा लगा और उन्होंने रानी से वामा के इस घटना की शिकायत कर दी। रानी ने क्रोधित हो कर अपने दरबानों को आदेश दिया और वामा को पीट कर मन्दिर से बहार निकल फेंका। वामा को शमशान में फेंक दिया। फ़िर रानी ने दुसरे पंडित को माँ का भोग लगाने का कार्य दे दिया। चार दिन तक वामा खेपा शमशान में बिना कुछ खाए पिए पड़े रहे।
तब चार दिन के उपरांत माँ तारा ने रानी को अर्ध चैतन्य अवस्था में दर्शन दिए और कहा की रानी मैंने चार दिनों से भोग ग्रहण नही किया है। तब रानी ने चकित होकर माँ से कहा की हे माँ आपको तो रोज़ भोग लगता है। माँ तारा ने कहा की मेरा एक पागल बेटा है जिसे तुम्हारे दरबानों ने पीट कर बहार फेंक दिया। उसने भी चार दिनों से कुछ नही खाया है। अतः मैंने भी चार दिन से उपवास किया है। इसपर रानी बोली। " माँ उस व्यक्ति ने आप की मूर्ति पर मूत्र कर दिया था इसलिए मैंने उसे दंड दिया"। इस पर माँ तारा बोली यदि बालक अपनी माँ पर मूत्र कर दे तो क्या माँ उसे दंड देती है? वह मेरा बेटा है। वह मुझपर मूत्र करे या फ़िर मुझे मारे तुम्हे दंड देना का अधिकार नही है।यदि अपने राज्य का भला चाहती हो तो सम्मानपूर्वक मेरे बेटे को वापस लाओ। और आजके बाद वामा को पहले भोग लगेगा तब ही मैं भोग ग्रहण करुँगी। ऐसा कह कर माँ अंतर्ध्यान हो गई।तब रानी ने वामा खेपा को आदरसहित मन्दिर में बुलाया। तब से हमेशा वामा खेपा को भोग लगने लगा और तब ही माँ तारा भोग ग्रहण करती थी।
इस प्रकार वामा खेप के जीवन में अनेको चमत्कार होते रहे। वामा खेपा के पहले वाम मार्ग एकदम विलुप्त हो रहा था। परन्तु उनकी भक्ति और चमत्कारों की वजह से वाम मार्ग को प्रसिद्धि मिली।
Wednesday, 13 May 2009
वामा खेपा की तारापीठ की कहानी...
बंगाल के इतिहास में वीरभूमि जिला एक विख्यात जिला है। हिन्दुओं के ५१ शक्तिपीठों में से पाँच शक्ति पीठ वीरभूमि में ही हैं। इसी कड़ी में उनीस्वी शताब्दी में वीरभूमिकी पवित्रता साधक वामा खेपा ने एक बार फ़िर बढाई।
राजा दशरथ के कुल पुरोहित वशिष्ठ मुनि ने भी वीरभूमि से जुड़ कर इतिहास में इस भूमि की शान बढाई। इसलिए वीरभूमि जिला हिंदू वाम मर्गियों का महा तीर्थ बना। यहाँ पर स्थापित वशिष्ठ मुनि के सिंघासन पर अनेको साधको ने अपनी सिद्धिया प्राप्त की। जिनमें से प्रमुख महाराज राजा राम कृष्ण परमहंस, आनंदनाथ, मोक्ष्दानंद , वामा खेपा के नाम आते है। इसी भूमि पर स्वयं मैंने भी अपनी सिद्धि, शव साधना द्वारा प्राप्त की।
यह वही जगह है जहा पर सुदर्शन चक्र ने माँ सती के नेत्र को काट कर गिराया था। इसी लिए इसका नाम तारापुर पड़ा। और आगे चल कर इस भूमि का नाम तारापीठ से प्रसिद्ध हुआ।
वाम मार्ग के प्रमुख्य साधक वामा खेपा महाराज की व्याख्या किए बिना वाम मार्ग का वर्णन अधुरा है। उत्सुक वाम भक्तो की जानकारी हेतु मैं यहाँ संचिप्त में वामा खेपा महाराज की जीवनी की व्याख्या कर रहा हूँ।
शास्त्र में कहा गया है समाज में जब भी जातिवाद की प्रथा बढ़ी है तो उसके उद्धार के लिए माँ ने अपने किसी न किसी दूत को जरुर भेजा है। इसी कड़ी में धरती पर वाम अवतार के रूप में वामा खेपा को माँ ने भेजा। यह ऐसे साधक हुए जो ब्रह्मण कुल में जनम लेने के बाद भी किसी प्रकार के छूतछात में विश्वास नही रखते थे। तारापीठ से तीन मील की दुरी पर स्थित आतला ग्राम में १२४४ साल के फागुन महीने में शिव चतुर्दशी के दिन उनका जनम हुआ। उनके पिता का नाम सर्वानन्द चटोपाध्याय था एवं वह एक धार्मिक व्यक्ति थे। उनकी माता का नाम श्रीमती राजकुमारी था तथा वह एक धर्मपरायण साध्वी स्त्री थीं। वामा खेपा की ४ बहने थी तथा वह दो भाई थे। वामा खेपा का नाम था वामा चरण एवं उनके छोटे भाई का नाम राम चरण था। ब्रह्मण परिवार होते हुए भी यह परिवार आर्थिक दृष्टि से कमजोर था। जिस कारण हमेशा घर में आभाव रहता था। कभी घर में चावल नही होता, तो कभी दाल नही तथा कभी सब्जी नही होती थी। तब भी वामा खेपा जी के पिता आनंदमय रहते थे तथा आँखों में आंसू लिए हुए सदा माँ का भजन करते रहते थे। गावं के लोग उनको सर्वा खेपा के नाम से चिढाते थे ( खेपा का अर्थ बंगाली में पगला होता है ) परन्तु वह हमेशा मस्त रहते थे। अपने पिता के संस्कार को देखते हुए बाल अवस्था में ही वामा चरण पाँच वर्ष की अल्प आयु में अपने हाथों से मिटटी की बहुत सुंदर माँ तारा की प्रतिमा बना लेते थे। एवं वह ऐसे भक्त थे की जब उन्हे माँ के बाल कैसे बनाएं समझ नही आया तो उन्होंने स्वयं अपने सारे बाल नोच कर माँ तारा की मूर्ति के सर पर लगा दिया था।
अपने तन मन की लगन से बनाई हुई यह मूर्ति एकदम सजीव लगती थी। पास में ही एक जावाफूल का पेड़ था। उसमें से फूल ले कर बालक वामा चरण एकाग्र होकर माँ तारा की पूजा करते रहते थे। घर में ही एक जामुन का भी वृक्ष था, उसी जामुन के फल से वह माँ तारा का भोग लगाते थे। तथा माँ से कहते थे की माँ तू पहले जामुन खा तभी मैं खाऊँगा। पर मूर्ति तो न कुछ बोलती थी और ना ही हिलती थी। इसपर बालक वामा चरण रोने लगते थे।
और जामुन वैसे ही मूर्ति के सामने रखे रहते थे। एक दिन उनके पिता ने यह देखा। तो उनकी आँखों में भी बाल भक्ति का यह अविस्मरनीय दृश देख कर आंसू आ गए। वामा चरण पिता जी को देखते ही उनसे पूछने लगे की माँ तारा कौन सा फल खाती हैं ? आप तो कितने फल ले कर पूजा करते हैं और कहते हैं की माँ मन ही मन फल खा लेती है और फ़िर हम प्रसाद ग्रहण करते हैं। तो फिर मेरे फल क्यों नही खाती? तब सर्वानन्द जी ने वामा चरण को समझाया की तुम्हारी माँ तुम्हे खिलाये बिना क्या कभी खाती है या सोती है? माँ पहले अपने बालक को खिला कर ही स्वयम कुछ खाती है। उसी प्रकार यह जगत की माता सारे संसार के बच्चो को खिलाये बिना नही खाती। तब वामा चरण ने फ़िर पुछा की माँ तारा बोलती क्यों नही है? तब उनके पिता ने कहा की माँ से बात करने के लिए तपस्या करनी पड़ती है।
यह बात सुन कर बालक वामा चरण अपनी जन्मदात्री माँ के पास पहुंचे और उनसे जा कर पुछा की माँ क्या तुम तारा माँ के साथ मेरी बात करा सकती हो ? ऐसा सुन कर वामा चरण की माँ उन्हे ले कर चुपचाप पूजा ग्रह में माँ तारा के सामने बैठ गयीं। इसी तरह नित्य माँ तारा की आराधना करते करते वामा चरण की उम्र ग्यारह वर्ष तथा उनके भाई की उम्र पाँच वर्ष की हो गई। इसी बीच उनके पिता की सेहत ख़राब हो गई और मृत्यु शैया पर माँ तारा का नाम जपते हुए उनके प्राण निकल गए। उसी वक्त जब माँ तारापीठ के शमशान में वामा चरण ने अपने पिता का अन्तिम शंस्कार किया तब उन्हे माँ तारा के प्रथम बार शमशान में दर्शन हुए। विधवा माँ ने किसी तरह भीख मांग कर अपने पति के श्राद्ध का काम पूरा किया। मृत्यु की ख़बर पा कर वामा चरण के मामा नौ ग्राम से आ कर दोनों भाइयों को अपने घर ले गए। वामा चरण गाय चराने ले जाते थे तथा उनके छोटे भाई गायों के लिए घास कटते थे। इसके एवज में उन्हे आधा पेट झूठा भात खाने को दिया जाता था।
एक बार वामा चरण को एक बड़ी से टोकरी ले कर गोबर उठाने और राम चरण को घास काटने के लिए उनके मामा ने कहा। राम चरण की असावधानी के कारन वामा चरण की ऊँगली कट गई। तब राम चरण भाई भाई कह कर रोने लगे। तब तक इनकी गाय ने बगल के खेत में खड़ी फसल को नष्ट कर दिया। उस खेत के मालिक ने मामा से शिकायत कर दी। मामा ने छड़ी लेकर वामा चरण को खूब मारा। उसी के बाद वामा भाग कर अपनी माँ के पास आतला ग्राम वापस लौट आए। और राम चरण को एक साधू अपने साथ गाना सिखाने ले गए। तभी से वामा ने शमशान में रहना निश्चित किया।
उस दिन पूरनमासी थी, और शमशान में कई लोग बैठे थे। उनके पैर दबाते दबाते वामा सो गए।उसी बीच शमशान में बैरागी साधक गांजा पी कर उसके आग को एक जगह फेक दिया। हवा के झोंके से वह आग एक झोपडी में लग गई और देखते देखते सारे गाँव को झुलस दिया। गाँव वालों ने समझा की यह वामा चरण की गलती है। गाँव वाले उन्हें खोजने लगे। उनके डर से वामा चरण भक्त प्रहलाद की कहानी याद करते हुए आग में ख़ुद ही कूद गए। वह चिल्लाते रहे की मैंने आग नही लगायी है। धीरे धीरे पूरा गाँव आग में झुलस गया परन्तु वामा चरण कुंदन के समान आग से सकुशल निकल आए। और दौड़ते हुए अपनी माँ के पास अपने गाँव भाग गए।
आर्थिक स्तिथि ख़राब होने के कारन एक दिन उनकी माँ ने उन्हे बहुत भला बुरा कहा, उसी समय वामा घर से जो निकले तो फ़िर कभी अपने घर वापस नही आए। यहाँ से ही वामा चरण की साधना प्रारम्भ हुई। उसी समय तारापीठ के महा शमशान में शिमल वृक्ष के नीचे सिद्ध महापुरुष कैलाशपति बाबा आनेवाले थे। मोक्षानंद बाबा, गोसाईं बाबा आदि सभी ने वामा को वहा आश्रय दिया। प्रति दिन वामा जीवन कुंडा में स्नान करते और गांजा चुगते थे। कैलाशपति बाबा उनको बहुत मानते थे। कैलाशपति बाबा ने वामा को अपने शमशान में रहने का स्थान दिया। उनका खद्दोऊ पहन कर द्वारका नदी के ऊपर चलना और मुरझाये हुए तुलसी वृक्ष को हरा भरा कर देना जैसे आलौकिक कार्यों को देख कर वामा चकित रह गए। एक बार रात में कैस्लाश्पति बाबा ने वामा को गांजा तैयार करने के लिए बुलाया। उस दिन वामा को बहुत डर लगा। असंख्य दैत्याकार आकृतियाँ उनके चारो तरफ़ घेर कर खड़ी थी। यह देख कर वामा बेहोश हो गए। बाद में जय गुरु जय तारा कहते हुए वह सब आकृतियाँ विलीन हो गयीं। तब वामा ने साहस करके कैलाशपति बाबा को गांजा दिया।
शेष कहानी के लिए इंतज़ार करे...
राजा दशरथ के कुल पुरोहित वशिष्ठ मुनि ने भी वीरभूमि से जुड़ कर इतिहास में इस भूमि की शान बढाई। इसलिए वीरभूमि जिला हिंदू वाम मर्गियों का महा तीर्थ बना। यहाँ पर स्थापित वशिष्ठ मुनि के सिंघासन पर अनेको साधको ने अपनी सिद्धिया प्राप्त की। जिनमें से प्रमुख महाराज राजा राम कृष्ण परमहंस, आनंदनाथ, मोक्ष्दानंद , वामा खेपा के नाम आते है। इसी भूमि पर स्वयं मैंने भी अपनी सिद्धि, शव साधना द्वारा प्राप्त की।
यह वही जगह है जहा पर सुदर्शन चक्र ने माँ सती के नेत्र को काट कर गिराया था। इसी लिए इसका नाम तारापुर पड़ा। और आगे चल कर इस भूमि का नाम तारापीठ से प्रसिद्ध हुआ।
वाम मार्ग के प्रमुख्य साधक वामा खेपा महाराज की व्याख्या किए बिना वाम मार्ग का वर्णन अधुरा है। उत्सुक वाम भक्तो की जानकारी हेतु मैं यहाँ संचिप्त में वामा खेपा महाराज की जीवनी की व्याख्या कर रहा हूँ।
शास्त्र में कहा गया है समाज में जब भी जातिवाद की प्रथा बढ़ी है तो उसके उद्धार के लिए माँ ने अपने किसी न किसी दूत को जरुर भेजा है। इसी कड़ी में धरती पर वाम अवतार के रूप में वामा खेपा को माँ ने भेजा। यह ऐसे साधक हुए जो ब्रह्मण कुल में जनम लेने के बाद भी किसी प्रकार के छूतछात में विश्वास नही रखते थे। तारापीठ से तीन मील की दुरी पर स्थित आतला ग्राम में १२४४ साल के फागुन महीने में शिव चतुर्दशी के दिन उनका जनम हुआ। उनके पिता का नाम सर्वानन्द चटोपाध्याय था एवं वह एक धार्मिक व्यक्ति थे। उनकी माता का नाम श्रीमती राजकुमारी था तथा वह एक धर्मपरायण साध्वी स्त्री थीं। वामा खेपा की ४ बहने थी तथा वह दो भाई थे। वामा खेपा का नाम था वामा चरण एवं उनके छोटे भाई का नाम राम चरण था। ब्रह्मण परिवार होते हुए भी यह परिवार आर्थिक दृष्टि से कमजोर था। जिस कारण हमेशा घर में आभाव रहता था। कभी घर में चावल नही होता, तो कभी दाल नही तथा कभी सब्जी नही होती थी। तब भी वामा खेपा जी के पिता आनंदमय रहते थे तथा आँखों में आंसू लिए हुए सदा माँ का भजन करते रहते थे। गावं के लोग उनको सर्वा खेपा के नाम से चिढाते थे ( खेपा का अर्थ बंगाली में पगला होता है ) परन्तु वह हमेशा मस्त रहते थे। अपने पिता के संस्कार को देखते हुए बाल अवस्था में ही वामा चरण पाँच वर्ष की अल्प आयु में अपने हाथों से मिटटी की बहुत सुंदर माँ तारा की प्रतिमा बना लेते थे। एवं वह ऐसे भक्त थे की जब उन्हे माँ के बाल कैसे बनाएं समझ नही आया तो उन्होंने स्वयं अपने सारे बाल नोच कर माँ तारा की मूर्ति के सर पर लगा दिया था।
अपने तन मन की लगन से बनाई हुई यह मूर्ति एकदम सजीव लगती थी। पास में ही एक जावाफूल का पेड़ था। उसमें से फूल ले कर बालक वामा चरण एकाग्र होकर माँ तारा की पूजा करते रहते थे। घर में ही एक जामुन का भी वृक्ष था, उसी जामुन के फल से वह माँ तारा का भोग लगाते थे। तथा माँ से कहते थे की माँ तू पहले जामुन खा तभी मैं खाऊँगा। पर मूर्ति तो न कुछ बोलती थी और ना ही हिलती थी। इसपर बालक वामा चरण रोने लगते थे।
और जामुन वैसे ही मूर्ति के सामने रखे रहते थे। एक दिन उनके पिता ने यह देखा। तो उनकी आँखों में भी बाल भक्ति का यह अविस्मरनीय दृश देख कर आंसू आ गए। वामा चरण पिता जी को देखते ही उनसे पूछने लगे की माँ तारा कौन सा फल खाती हैं ? आप तो कितने फल ले कर पूजा करते हैं और कहते हैं की माँ मन ही मन फल खा लेती है और फ़िर हम प्रसाद ग्रहण करते हैं। तो फिर मेरे फल क्यों नही खाती? तब सर्वानन्द जी ने वामा चरण को समझाया की तुम्हारी माँ तुम्हे खिलाये बिना क्या कभी खाती है या सोती है? माँ पहले अपने बालक को खिला कर ही स्वयम कुछ खाती है। उसी प्रकार यह जगत की माता सारे संसार के बच्चो को खिलाये बिना नही खाती। तब वामा चरण ने फ़िर पुछा की माँ तारा बोलती क्यों नही है? तब उनके पिता ने कहा की माँ से बात करने के लिए तपस्या करनी पड़ती है।
यह बात सुन कर बालक वामा चरण अपनी जन्मदात्री माँ के पास पहुंचे और उनसे जा कर पुछा की माँ क्या तुम तारा माँ के साथ मेरी बात करा सकती हो ? ऐसा सुन कर वामा चरण की माँ उन्हे ले कर चुपचाप पूजा ग्रह में माँ तारा के सामने बैठ गयीं। इसी तरह नित्य माँ तारा की आराधना करते करते वामा चरण की उम्र ग्यारह वर्ष तथा उनके भाई की उम्र पाँच वर्ष की हो गई। इसी बीच उनके पिता की सेहत ख़राब हो गई और मृत्यु शैया पर माँ तारा का नाम जपते हुए उनके प्राण निकल गए। उसी वक्त जब माँ तारापीठ के शमशान में वामा चरण ने अपने पिता का अन्तिम शंस्कार किया तब उन्हे माँ तारा के प्रथम बार शमशान में दर्शन हुए। विधवा माँ ने किसी तरह भीख मांग कर अपने पति के श्राद्ध का काम पूरा किया। मृत्यु की ख़बर पा कर वामा चरण के मामा नौ ग्राम से आ कर दोनों भाइयों को अपने घर ले गए। वामा चरण गाय चराने ले जाते थे तथा उनके छोटे भाई गायों के लिए घास कटते थे। इसके एवज में उन्हे आधा पेट झूठा भात खाने को दिया जाता था।
एक बार वामा चरण को एक बड़ी से टोकरी ले कर गोबर उठाने और राम चरण को घास काटने के लिए उनके मामा ने कहा। राम चरण की असावधानी के कारन वामा चरण की ऊँगली कट गई। तब राम चरण भाई भाई कह कर रोने लगे। तब तक इनकी गाय ने बगल के खेत में खड़ी फसल को नष्ट कर दिया। उस खेत के मालिक ने मामा से शिकायत कर दी। मामा ने छड़ी लेकर वामा चरण को खूब मारा। उसी के बाद वामा भाग कर अपनी माँ के पास आतला ग्राम वापस लौट आए। और राम चरण को एक साधू अपने साथ गाना सिखाने ले गए। तभी से वामा ने शमशान में रहना निश्चित किया।
उस दिन पूरनमासी थी, और शमशान में कई लोग बैठे थे। उनके पैर दबाते दबाते वामा सो गए।उसी बीच शमशान में बैरागी साधक गांजा पी कर उसके आग को एक जगह फेक दिया। हवा के झोंके से वह आग एक झोपडी में लग गई और देखते देखते सारे गाँव को झुलस दिया। गाँव वालों ने समझा की यह वामा चरण की गलती है। गाँव वाले उन्हें खोजने लगे। उनके डर से वामा चरण भक्त प्रहलाद की कहानी याद करते हुए आग में ख़ुद ही कूद गए। वह चिल्लाते रहे की मैंने आग नही लगायी है। धीरे धीरे पूरा गाँव आग में झुलस गया परन्तु वामा चरण कुंदन के समान आग से सकुशल निकल आए। और दौड़ते हुए अपनी माँ के पास अपने गाँव भाग गए।
आर्थिक स्तिथि ख़राब होने के कारन एक दिन उनकी माँ ने उन्हे बहुत भला बुरा कहा, उसी समय वामा घर से जो निकले तो फ़िर कभी अपने घर वापस नही आए। यहाँ से ही वामा चरण की साधना प्रारम्भ हुई। उसी समय तारापीठ के महा शमशान में शिमल वृक्ष के नीचे सिद्ध महापुरुष कैलाशपति बाबा आनेवाले थे। मोक्षानंद बाबा, गोसाईं बाबा आदि सभी ने वामा को वहा आश्रय दिया। प्रति दिन वामा जीवन कुंडा में स्नान करते और गांजा चुगते थे। कैलाशपति बाबा उनको बहुत मानते थे। कैलाशपति बाबा ने वामा को अपने शमशान में रहने का स्थान दिया। उनका खद्दोऊ पहन कर द्वारका नदी के ऊपर चलना और मुरझाये हुए तुलसी वृक्ष को हरा भरा कर देना जैसे आलौकिक कार्यों को देख कर वामा चकित रह गए। एक बार रात में कैस्लाश्पति बाबा ने वामा को गांजा तैयार करने के लिए बुलाया। उस दिन वामा को बहुत डर लगा। असंख्य दैत्याकार आकृतियाँ उनके चारो तरफ़ घेर कर खड़ी थी। यह देख कर वामा बेहोश हो गए। बाद में जय गुरु जय तारा कहते हुए वह सब आकृतियाँ विलीन हो गयीं। तब वामा ने साहस करके कैलाशपति बाबा को गांजा दिया।
शेष कहानी के लिए इंतज़ार करे...
Friday, 8 May 2009
पञ्च मकार और तांत्रिक साधना का हमारे जीवन में महत्त्व....
युगों युगों से तंत्र साधना मानवता के उद्धार और कष्टों को दूर करने के लिए प्रकृति में उपलब्ध गुणों को खोज कर निकल लायी है। जैसा की हम सभी जानते हैं की इस श्रृष्टि में प्रकृति ने सभी प्रकार के कष्टों का निवारंड पहले से ही दे रखा है। प्राचीन काल में सन्यासी, ऋषि, मुनि और तांत्रिक इन्हे खोज निकालते थे। आधुनिक युग के वैज्ञानिको को ही पूर्व में तांत्रिक और ऋषि कहा गया था।
हमारे हिंदू धर्म में सभी चीजों की खोज बहुत पहले ही हो चुकी है। परन्तु जब आज वोही पुरानी चीजे आधुनिक वैज्ञानिक फ़िर से दुनिया को बता रहे हैं तो हमें आश्चर्य होता है। मैं यहाँ कुछ उदहारण देता हूँ।
आधुनिक युग का रेडियो जिसे हम कुछ वर्षो से जानते हैं , हमारे ऋषि मुनियों द्वारा प्राचीन काल से साधना और ध्यानमग्न मात्र होने से ही दूर बैठे मनुष्य से वार्तालाप हो जाता था। तांत्रिक साधना में एक तांत्रिक रेडियो के सामान ही सही समय पर सही किरणों के प्रभाव से दूर दूर बैठे लोगों के साथ जुड़ सकता है। इस प्रकार वह प्राणियों के कष्ट को दूर करता है। तंत्र साधन की वजह से तांत्रिक इन किरणों से ध्यान मग्न हो कर अपनी आन्तरिक शक्ति भी बढ़ता है।
तंत्र क्रिया सदेव ही प्रकृति के नियमों के अनुरूप चलती है। यह पूरा संसार ही एक तांत्रिक क्रिया है। तांत्रिक क्रिया पञ्च मकार से मिल कर ही पूरी होती है। पञ्च मकार यानि तंत्र क्रिया के पाँच स्तम्भ।
मॉस, मतस्य, मुद्रा, मदिरा और मैथुन तांत्रिक क्रिया के पञ्च मकार हैं। तथा बिना इन पञ्च मकार के सम्मिलन से श्रृष्टि में जीवन का सञ्चालन असंभव है।
मॉस: इस श्रृष्टि में प्राणी का जनम ही मॉस के लोथडे के रूप में हुआ है। ऐसा कोई भी प्राणी नही है जो पञ्च मकर के प्रथम " म" मॉस से वंचित रह कर जीवन यापन कर सके। मॉस के रूप में ही मनुष्य एवं जीवों की अपने माँ के गर्भ से उत्पत्ति हुई है। हर प्राणी किसी न किसी प्रकार मॉस का उपयोग अपने दैनिक क्रिया में करता है। चाहे वह भोजन में मॉस का लेना हो या फ़िर किसी को छूना, देखना या महसूस करना सभी में मॉस की प्राथमिकता है।
जब माँ के गर्भ में जीवन का विकास होता है तब उसका सबसे पहला वजूद मॉस के रूप में ही होता है। इस से सिद्ध होता है की जीवन की शुरुवात ही पञ्च मकार के प्रथम " म " से होती है।
मतस्य: मतस्य का शाब्दिक अर्थ मछली से होता है। परन्तु तंत्र क्रिया में अथवा पञ्च मकार में मतस्य का मतलब चंचलता या गति से होता है। जिस प्रकार मछली अपने जीवनपर्यंत गतिमान रहती है और पानी के विपरीत दिशा में तैरते हुए अपने लक्ष्य को प्राप्त करती है उसी प्रकार तंत्र साधना के अनुसार बिना गति के कोई भी जीव इस संसार में रह नही सकता। पञ्च मकार के मॉस गुण के प्राणी में आने के बाद मतस्य गुण का होना एक मॉस को गति प्रदान करता है। पञ्च मकार के दुसरे मकार " मतस्य" से ही संसार में जीवो को हमेशा आगे बढ़ने की इक्षा मिलती हैं । मतस्य गुण ही व्यक्ति को नए कार्यो के प्रति प्रगतिशील बनता है।
मुद्रा: तंत्र में मुद्रा के दो रूप हैं।
१> मुद्रा यानी किसी प्रकार की क्रिया जो व्यक्त की जा सके। जैसे योनी मुद्रा, लिंग मुद्रा, ज्ञान मुद्रा।
२> मुद्रा का मतलब खाद्य पदार्थ से भी है। जैसे चावल के पिण्ड
पञ्च मकार के मॉस, मतस्य गुण धारण करने के बाद जीव में सही मुद्रा (क्रिया) के ज्ञान का होना अति आवश्यक है। और सही क्रिया को करने के लिए सही मुद्रा ( खाद्द्य पदार्थ ) की भी आवश्यकता है।
जब गर्भ में जीव गति प्राप्त कर लेता है तब वह अपने हाथ और पैर को अपने गर्दन के चारो और बाँध कर एक मुद्रा धारण करता है। जैसे ही वह अपनी माता द्वारा ग्रहण किया गया भोजन को अपना आहार बनाता है, उसके हाथ पैर में गति आ जाती है। यह पञ्च मकार के तीसरे " म " का श्रेष्ठ उदहारण है।
मदिरा : तंत्र में मदिरा का अर्थ "नशा" है। आम मनुष्य मदिरा पीने वाले नशे को ही तंत्र से जोड़ते हैं। परन्तु सही मायने में पञ्च मकार में मदिरा रुपी नशे को किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए होने वाली लगन को कहते हैं। इश्वर की भक्ति को प्राप्त करने का नशा ही तांत्रिक को कठिन से कठिन साधना पूरा करने के लिए प्रेरित करता है। जीव को आगे बढ़ने के लिए स्वयं में मदिरा गुण को लाना अति आवश्यक है।
पञ्च मकार के यह चारों गुन जब साथ मिलते हैं तो वह जीव मॉस (शरीर ), मतस्य (गति),मुद्रा (क्रिया,आहार )और मदिरा (नशा) के आने के बाद अपने जीवन में कोई भी लक्ष्य प्राप्त कर सकता है।
जब बालक अपने माँ के गर्भ में बड़ा हो रहा होता है तो वह समय उसके लिए बहुत कष्टकारी होता है। माँ के द्वारा ग्रहण किया गया भोजन उसकी कोमल त्वचा को चोट पहुचाता है। गति आने के बाद और माँ से आहार मिलने के बाद वह जीव स्वयं को इस कष्ट से निकलने के लिए इश्वर से प्राथना करता है। उसके अन्दर मदिरा गुण का प्रवेश होते ही वह अपने कष्ट को दूर करने के लिए इश्वर की प्रार्थना में ली
मैथुन:मैथुन का अर्थ है "मथना " तंत्र में मैथुन का बहुत महत्त्व है। परन्तु इसे किस प्रकार अपने जीवन में अपनाना है वह जानना बहुत जरुरी है। अधिकतर लोगों को तंत्र के बारे में यह भ्रान्ति है की यहाँ तांत्रिक को मैथुन करने की छुट है। मैं यहाँ पञ्च मकार के इस पांचवे और बहुत ही महत्व्य्पूर्ण " म " के बारे में बताना चाहता हूँ।
तंत्र में यह कहा गया है की इस संसार में पाई जाने वाली हर वस्तु को यदि सही प्रकार से मथा जाए तो एक नई वस्तु का जनम होता है। जिसका उदहारण हमारे शाश्त्रो में समुन्द्र मंथन से दिया गया है। समुन्द्र मंथन के समय सागर के मंथन से विभिन्न प्रकार की वस्तुओं की जनम हुआ था जिसमे विष और अमृत की उल्लेख प्रमुख्य है।
गृहस्त जीवन में भी जब एक पुरूष अपनी स्त्री के साथ मैथुन करता है, अपने वीर्य को स्त्री के बीज के साथ मंथन करता है तो एक बालक के रूप में नए जीवन की निर्माण होता है। इसलिए मैथुन करने से तंत्र में कुछ नया निर्माण करने की बात कही गई है।
जब एक तांत्रिक मैथुन करता है तब वह स्वयं अपने शरीर (ब्र्ह्म/ शिव ) तथा अपनी आत्मा ( शक्ति / शिवा) का मंथन करता है। तथा उस मंथन को सही ढंग से करने के उपरांत ही इश्वर को पाने के नए नए रास्तो की निर्माण करता है।
हमारे हिंदू धर्म में सभी चीजों की खोज बहुत पहले ही हो चुकी है। परन्तु जब आज वोही पुरानी चीजे आधुनिक वैज्ञानिक फ़िर से दुनिया को बता रहे हैं तो हमें आश्चर्य होता है। मैं यहाँ कुछ उदहारण देता हूँ।
आधुनिक युग का रेडियो जिसे हम कुछ वर्षो से जानते हैं , हमारे ऋषि मुनियों द्वारा प्राचीन काल से साधना और ध्यानमग्न मात्र होने से ही दूर बैठे मनुष्य से वार्तालाप हो जाता था। तांत्रिक साधना में एक तांत्रिक रेडियो के सामान ही सही समय पर सही किरणों के प्रभाव से दूर दूर बैठे लोगों के साथ जुड़ सकता है। इस प्रकार वह प्राणियों के कष्ट को दूर करता है। तंत्र साधन की वजह से तांत्रिक इन किरणों से ध्यान मग्न हो कर अपनी आन्तरिक शक्ति भी बढ़ता है।
तंत्र क्रिया सदेव ही प्रकृति के नियमों के अनुरूप चलती है। यह पूरा संसार ही एक तांत्रिक क्रिया है। तांत्रिक क्रिया पञ्च मकार से मिल कर ही पूरी होती है। पञ्च मकार यानि तंत्र क्रिया के पाँच स्तम्भ।
मॉस, मतस्य, मुद्रा, मदिरा और मैथुन तांत्रिक क्रिया के पञ्च मकार हैं। तथा बिना इन पञ्च मकार के सम्मिलन से श्रृष्टि में जीवन का सञ्चालन असंभव है।
मॉस: इस श्रृष्टि में प्राणी का जनम ही मॉस के लोथडे के रूप में हुआ है। ऐसा कोई भी प्राणी नही है जो पञ्च मकर के प्रथम " म" मॉस से वंचित रह कर जीवन यापन कर सके। मॉस के रूप में ही मनुष्य एवं जीवों की अपने माँ के गर्भ से उत्पत्ति हुई है। हर प्राणी किसी न किसी प्रकार मॉस का उपयोग अपने दैनिक क्रिया में करता है। चाहे वह भोजन में मॉस का लेना हो या फ़िर किसी को छूना, देखना या महसूस करना सभी में मॉस की प्राथमिकता है।
जब माँ के गर्भ में जीवन का विकास होता है तब उसका सबसे पहला वजूद मॉस के रूप में ही होता है। इस से सिद्ध होता है की जीवन की शुरुवात ही पञ्च मकार के प्रथम " म " से होती है।
मतस्य: मतस्य का शाब्दिक अर्थ मछली से होता है। परन्तु तंत्र क्रिया में अथवा पञ्च मकार में मतस्य का मतलब चंचलता या गति से होता है। जिस प्रकार मछली अपने जीवनपर्यंत गतिमान रहती है और पानी के विपरीत दिशा में तैरते हुए अपने लक्ष्य को प्राप्त करती है उसी प्रकार तंत्र साधना के अनुसार बिना गति के कोई भी जीव इस संसार में रह नही सकता। पञ्च मकार के मॉस गुण के प्राणी में आने के बाद मतस्य गुण का होना एक मॉस को गति प्रदान करता है। पञ्च मकार के दुसरे मकार " मतस्य" से ही संसार में जीवो को हमेशा आगे बढ़ने की इक्षा मिलती हैं । मतस्य गुण ही व्यक्ति को नए कार्यो के प्रति प्रगतिशील बनता है।
मुद्रा: तंत्र में मुद्रा के दो रूप हैं।
१> मुद्रा यानी किसी प्रकार की क्रिया जो व्यक्त की जा सके। जैसे योनी मुद्रा, लिंग मुद्रा, ज्ञान मुद्रा।
२> मुद्रा का मतलब खाद्य पदार्थ से भी है। जैसे चावल के पिण्ड
पञ्च मकार के मॉस, मतस्य गुण धारण करने के बाद जीव में सही मुद्रा (क्रिया) के ज्ञान का होना अति आवश्यक है। और सही क्रिया को करने के लिए सही मुद्रा ( खाद्द्य पदार्थ ) की भी आवश्यकता है।
जब गर्भ में जीव गति प्राप्त कर लेता है तब वह अपने हाथ और पैर को अपने गर्दन के चारो और बाँध कर एक मुद्रा धारण करता है। जैसे ही वह अपनी माता द्वारा ग्रहण किया गया भोजन को अपना आहार बनाता है, उसके हाथ पैर में गति आ जाती है। यह पञ्च मकार के तीसरे " म " का श्रेष्ठ उदहारण है।
मदिरा : तंत्र में मदिरा का अर्थ "नशा" है। आम मनुष्य मदिरा पीने वाले नशे को ही तंत्र से जोड़ते हैं। परन्तु सही मायने में पञ्च मकार में मदिरा रुपी नशे को किसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए होने वाली लगन को कहते हैं। इश्वर की भक्ति को प्राप्त करने का नशा ही तांत्रिक को कठिन से कठिन साधना पूरा करने के लिए प्रेरित करता है। जीव को आगे बढ़ने के लिए स्वयं में मदिरा गुण को लाना अति आवश्यक है।
पञ्च मकार के यह चारों गुन जब साथ मिलते हैं तो वह जीव मॉस (शरीर ), मतस्य (गति),मुद्रा (क्रिया,आहार )और मदिरा (नशा) के आने के बाद अपने जीवन में कोई भी लक्ष्य प्राप्त कर सकता है।
जब बालक अपने माँ के गर्भ में बड़ा हो रहा होता है तो वह समय उसके लिए बहुत कष्टकारी होता है। माँ के द्वारा ग्रहण किया गया भोजन उसकी कोमल त्वचा को चोट पहुचाता है। गति आने के बाद और माँ से आहार मिलने के बाद वह जीव स्वयं को इस कष्ट से निकलने के लिए इश्वर से प्राथना करता है। उसके अन्दर मदिरा गुण का प्रवेश होते ही वह अपने कष्ट को दूर करने के लिए इश्वर की प्रार्थना में ली
मैथुन:मैथुन का अर्थ है "मथना " तंत्र में मैथुन का बहुत महत्त्व है। परन्तु इसे किस प्रकार अपने जीवन में अपनाना है वह जानना बहुत जरुरी है। अधिकतर लोगों को तंत्र के बारे में यह भ्रान्ति है की यहाँ तांत्रिक को मैथुन करने की छुट है। मैं यहाँ पञ्च मकार के इस पांचवे और बहुत ही महत्व्य्पूर्ण " म " के बारे में बताना चाहता हूँ।
तंत्र में यह कहा गया है की इस संसार में पाई जाने वाली हर वस्तु को यदि सही प्रकार से मथा जाए तो एक नई वस्तु का जनम होता है। जिसका उदहारण हमारे शाश्त्रो में समुन्द्र मंथन से दिया गया है। समुन्द्र मंथन के समय सागर के मंथन से विभिन्न प्रकार की वस्तुओं की जनम हुआ था जिसमे विष और अमृत की उल्लेख प्रमुख्य है।
गृहस्त जीवन में भी जब एक पुरूष अपनी स्त्री के साथ मैथुन करता है, अपने वीर्य को स्त्री के बीज के साथ मंथन करता है तो एक बालक के रूप में नए जीवन की निर्माण होता है। इसलिए मैथुन करने से तंत्र में कुछ नया निर्माण करने की बात कही गई है।
जब एक तांत्रिक मैथुन करता है तब वह स्वयं अपने शरीर (ब्र्ह्म/ शिव ) तथा अपनी आत्मा ( शक्ति / शिवा) का मंथन करता है। तथा उस मंथन को सही ढंग से करने के उपरांत ही इश्वर को पाने के नए नए रास्तो की निर्माण करता है।
Wednesday, 6 May 2009
तंत्र में बलि की प्रमुख्यता क्यों?
हिंदू धर्म में सिर्फ़ वाम मार्ग ही ऐसा मार्ग है जिसमें त्याग की बात कम कही गई है और बलि पर अधिक से अधिक ज़ोर दिया गया है। यहाँ मैं बलि और त्याग में जो एक महीन अन्तर है वह पहले व्यक्त करता हूँ।
त्याग का मतलब है किस को छोड़ देना परन्तु अगर मौका मिले तो फ़िर से त्याग की गई वस्तु वापस अपनाई जा सकती है। सनातन धर्म के अधिकतर संप्रदाय में त्याग को महत्त्व दिया गया है। परन्तु सिर्फ़ वाम मार्ग में बलि को प्राथमिकता दी गई है। बलि क्यों?? बलि का मतलब होता है किसी का अंत। इसलिए तंत्र में बलि की महत्वता है। क्योंकि बलि की गई वस्तु वापस नही आ सकती है। त्याग की गई वस्तु को वापस अपनाया जा सकता है पर बलि देने के बाद हम उस वस्तु को पहले के सामान कभी भी अपना नही सकते।
आम साधक बलि का सही भावार्थ नही समझ पाते हैं। बलि को हमेशा किसी प्राणी के अंत से ही देखा जाता है। परन्तु सही रूप में बलि तो हमें अपने अन्दर छिपे दोष और अवगुणों का देना चाहिए। वाम मार्ग में तथा तंत्र में एक सही साधक हमेशा अपने अवगुणों की ही बलि देता है। हमेशा भटके हुए साधक, जिन्हे तंत्र का पूरा ज्ञान नही है वह दुसरे जीवों की बलि दे कर समझते हैं की उन्होंने इश्वर को प्रसन्न कर दिया। पर माँ काली का कहना है की उन्हे साधक के अवगुणों की बलि चाहिए ना की मूक जीवों की।
त्यागी व्यक्ति को हमेशा यह भय रहता है की कही वह अपनी त्याग की गई वस्तु, आदत को वापस न अपना लें। इसलिए त्यागी संत या साधक पूरी तरह से निर्भय नही हो पाते हैं। परन्तु तांत्रिक साधक जब बलि दे देता है तो वह भयहीन हो जाता है। इसलिए वह बलि देने के बाद माँ के और समीप हो जाते है।
यदि एक उच्च कोटि का साधक बनना है तो बलि देने की आदत जरुरी है। बलि का मतलब यहाँ हिंसा से कभी भी नही है।
एक सफल साधक साधना में लीनं होने के लिए निम्न प्रकार की बलि देता है:
१> निजी मोह की बलि देता है।
२> निजी वासना की बलि देता है।
३> लज्जा की बलि देता है।
४> क्रोध की बलि देता है।
इसलिए त्याग से उत्तम बलि देना होता है। जो मनुष्य गृहस्थ आश्रम में है तथा सामान्य भक्ति करते हैं वह अपने जीवन में अगर कुछ हद तक मोह,वासना,ईष्या, और क्रोध की बलि दें तो वह इश्वर के समीप जा सकते है और उनका जीवन सफल होता है।
त्याग का मतलब है किस को छोड़ देना परन्तु अगर मौका मिले तो फ़िर से त्याग की गई वस्तु वापस अपनाई जा सकती है। सनातन धर्म के अधिकतर संप्रदाय में त्याग को महत्त्व दिया गया है। परन्तु सिर्फ़ वाम मार्ग में बलि को प्राथमिकता दी गई है। बलि क्यों?? बलि का मतलब होता है किसी का अंत। इसलिए तंत्र में बलि की महत्वता है। क्योंकि बलि की गई वस्तु वापस नही आ सकती है। त्याग की गई वस्तु को वापस अपनाया जा सकता है पर बलि देने के बाद हम उस वस्तु को पहले के सामान कभी भी अपना नही सकते।
आम साधक बलि का सही भावार्थ नही समझ पाते हैं। बलि को हमेशा किसी प्राणी के अंत से ही देखा जाता है। परन्तु सही रूप में बलि तो हमें अपने अन्दर छिपे दोष और अवगुणों का देना चाहिए। वाम मार्ग में तथा तंत्र में एक सही साधक हमेशा अपने अवगुणों की ही बलि देता है। हमेशा भटके हुए साधक, जिन्हे तंत्र का पूरा ज्ञान नही है वह दुसरे जीवों की बलि दे कर समझते हैं की उन्होंने इश्वर को प्रसन्न कर दिया। पर माँ काली का कहना है की उन्हे साधक के अवगुणों की बलि चाहिए ना की मूक जीवों की।
त्यागी व्यक्ति को हमेशा यह भय रहता है की कही वह अपनी त्याग की गई वस्तु, आदत को वापस न अपना लें। इसलिए त्यागी संत या साधक पूरी तरह से निर्भय नही हो पाते हैं। परन्तु तांत्रिक साधक जब बलि दे देता है तो वह भयहीन हो जाता है। इसलिए वह बलि देने के बाद माँ के और समीप हो जाते है।
यदि एक उच्च कोटि का साधक बनना है तो बलि देने की आदत जरुरी है। बलि का मतलब यहाँ हिंसा से कभी भी नही है।
एक सफल साधक साधना में लीनं होने के लिए निम्न प्रकार की बलि देता है:
१> निजी मोह की बलि देता है।
२> निजी वासना की बलि देता है।
३> लज्जा की बलि देता है।
४> क्रोध की बलि देता है।
इसलिए त्याग से उत्तम बलि देना होता है। जो मनुष्य गृहस्थ आश्रम में है तथा सामान्य भक्ति करते हैं वह अपने जीवन में अगर कुछ हद तक मोह,वासना,ईष्या, और क्रोध की बलि दें तो वह इश्वर के समीप जा सकते है और उनका जीवन सफल होता है।
Sunday, 26 April 2009
क्या है तंत्र, मंत्र, यन्त्र,तांत्रिक, और तंत्र साधना...
यह पोस्ट मैं उन सभी लोगों के लिए लिख रहा हूँ जो तंत्र साधना ,तांत्रिक तथा वाम मार्गी के बारे में जानना चाहते है। यह पोस्ट उन लोगों के लिए भी है जिनके मन में तंत्र से जुडे कुछ संदेह हैं। तथा यह उन लोगों के लिए भी हैं जो हमारे हिंदू संस्कृति की सही खोज में लगे हैं।
यहाँ मैं बहुत ही सरल रूप में तंत्र, मंत्र, यन्त्र, तांत्रिक, तांत्रिक साधना,तांत्रिक क्रिया अथवा पञ्च मकार के बारे में संचिप्त में वर्णन करूँगा। तंत्र एक विज्ञानं है जो प्रयोग में विश्वास रखता है। इसे विस्तार में जानने के लिए एक सिद्ध गुरु की आवश्यकता है। अतः मैं यहाँ सिर्फ़ उसके सूक्ष्म रूप को ही दर्शा रहा हूँ।
पार्वतीजी ने महादेव शिव से प्रश्न किया की हे महादेव, कलयुग मे धर्म या मोक्ष प्राप्ति का क्या मार्ग होगा?
उनके इस प्रश्न के उत्तर मे महादेव शिव ने उन्हे समझते हुए जो भी व्यक्त किया तंत्र उसी को कहते हैं।
योगिनी तंत्र मे वर्णन है की कलयुग मे वैदिक मंत्र विष हीन सर्प के सामान हो जाएगा। ऐसा कलयुग में शुद्ध और अशुद्ध के बीच में कोई भेद भावः न रह जाने की वजह से होगा। कलयुग में लोग वेद में बताये गए नियमो का पालन नही करेंगे। इसलिए नियम और शुद्धि रहित वैदिक मंत्र का उच्चारण करने से कोई लाभ नही होगा। जो व्यक्ति वैदिक मंत्रो का कलयुग में उच्चारण करेगा उसकी व्यथा एक ऐसे प्यासे मनुष्य के सामान होगी जो गंगा नदी के समीप प्यासे होने पर कुआँ खोद कर अपनी प्यास बुझाने की कोशिश में अपना समय और उर्जा को व्यर्थ करता है। कलयुग में वैदिक मंत्रो का प्रभाव ना के बराबर रह जाएगा। और गृहस्त लोग जो वैसे ही बहुत कम नियमो को जानते हैं उनकी पूजा का फल उन्हे पूर्णतः नही मिल पायेगा। महादेव ने बताया की वैदिक मंत्रो का पूर्ण फल सतयुग, द्वापर तथा त्रेता युग में ही मिलेगा.
तब माँ पार्वती ने महादेव से पुछा की कलयुग में मनुष्य अपने पापों का नाश कैसे करेंगे? और जो फल उन्हे पूजा अर्चना से मिलता है वह उन्हे कैसे मिलेगा?
इस पर शिव जी ने कहा की कलयुग में तंत्र साधना ही सतयुग की वैदिक पूजा की तरह फल देगा। तंत्र में साधक को बंधन मुक्त कर दिया जाएगा। वह अपने तरीके से इश्वर को प्राप्त करने के लिए अनेको प्रकार के विज्ञानिक प्रयोग करेगा।
परन्तु ऐसा करने के लिए साधक के अन्दर इश्वर को पाने का नशा और प्रयोगों से कुछ प्राप्त करने की तीव्र इच्षा होनी चाहिए। तंत्र के प्रायोगिक क्रियाओं को करने के लिए एक तांत्रिक अथवा साधक को सही मंत्र, तंत्र और यन्त्र का ज्ञान जरुरी है।
मंत्र: मंत्र एक सिद्धांत को कहते हैं। किसी भी आविष्कार को सफल बनाने के लिए एक सही मार्ग और सही नियमों की आवश्यकता होती है। मंत्र वही सिद्धांत है जो एक प्रयोग को सफल बनाने में तांत्रिक को मदद करता है। मंत्र द्वारा ही यह पता चलता है की कौन से तंत्र को किस यन्त्र में समिलित कर के लक्ष्य तक पंहुचा जा सकता है।
मंत्र के सिद्ध होने पर ही पूरा प्रयोग सफल होता है। जैसे क्रिंग ह्रंग स्वाहा एक सिद्ध मंत्र है।
मंत्र मन तथा त्र शब्दों से मिल कर बना है। मंत्र में मन का अर्थ है मनन करना अथवा ध्यानस्त होना तथा त्र का अर्थ है रक्षा। इस प्रकार मंत्र का अर्थ है ऐसा मनन करना जो मनन करने वाले की रक्षा कर सके। अर्थात मन्त्र के उच्चारण या मनन से मनुष्य की रक्षा होती है।
तंत्र: श्रृष्टि में इश्वर ने हरेक समस्या का समाधान स्वयम दिया हुआ है। ऐसी कोई बीमारी या परेशानी नही जिसका समाधान इश्वर ने इस धरती पर किसी न किसी रूप में न दिया हो। तंत्र श्रृष्टि में पाए गए रासायनिक या प्राकृतिक वस्तुओं के सही समाहार की कला को कहते हैं। इस समाहार से बनने वाली उस औषधि या वस्तु से प्राणियों का कल्याण होता है।
तंत्र तन तथा त्र शब्दों से मिल कर बना है। जो वस्तु इस तन की रक्षा करे उसे ही तंत्र कहते हैं।
यन्त्र: मंत्र और तंत्र को यदि सही से प्रयोग किया जाए तो वह प्राणियों के कष्ट दूर करने में सफल है। पर तंत्र के रसायनों को एक उचित पात्र को आवश्यकता होती है। ताकि साधारण मनुष्य उस पात्र को आसानी से अपने पास रख सके या उसका प्रयोग कर सके। इस पात्र या साधन को ही यन्त्र कहते हैं। एक ऐसा पात्र जो तंत्र और मन्त्र को अपने में समिलित कर के आसानी से प्राणियों के कष्ट दूर करे वही यन्त्र है। हवन कुंड को सबसे श्रेष्ठ यन्त्र मन गया है। आसन, तलिस्मान, ताबीज इत्यादि भी यंत्र माने जाते है। कई प्रकार को आकृति को भी यन्त्र मन गया है। जैसे श्री यन्त्र, काली यन्त्र, महा मृतुन्जय यन्त्र इत्यादि।
यन्त्र शब्द यं तथा त्र के मिलाप से बना है। यं को पुर्व में यम यानी काल कहा जाता था। इसलिए जो यम से हमारी रक्षा करे उसे ही यन्त्र कहा जाता है।
इसलिए एक सफल तांत्रिक साधक को मंत्र, तंत्र और यन्त्र का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए। विज्ञानं के प्रयोगों जैसे ही यदि तीनो में से किसी की भी मात्रा या प्रकार ग़लत हुई तो सफलता नही मिलेगी।
यहाँ मैं बहुत ही सरल रूप में तंत्र, मंत्र, यन्त्र, तांत्रिक, तांत्रिक साधना,तांत्रिक क्रिया अथवा पञ्च मकार के बारे में संचिप्त में वर्णन करूँगा। तंत्र एक विज्ञानं है जो प्रयोग में विश्वास रखता है। इसे विस्तार में जानने के लिए एक सिद्ध गुरु की आवश्यकता है। अतः मैं यहाँ सिर्फ़ उसके सूक्ष्म रूप को ही दर्शा रहा हूँ।
पार्वतीजी ने महादेव शिव से प्रश्न किया की हे महादेव, कलयुग मे धर्म या मोक्ष प्राप्ति का क्या मार्ग होगा?
उनके इस प्रश्न के उत्तर मे महादेव शिव ने उन्हे समझते हुए जो भी व्यक्त किया तंत्र उसी को कहते हैं।
योगिनी तंत्र मे वर्णन है की कलयुग मे वैदिक मंत्र विष हीन सर्प के सामान हो जाएगा। ऐसा कलयुग में शुद्ध और अशुद्ध के बीच में कोई भेद भावः न रह जाने की वजह से होगा। कलयुग में लोग वेद में बताये गए नियमो का पालन नही करेंगे। इसलिए नियम और शुद्धि रहित वैदिक मंत्र का उच्चारण करने से कोई लाभ नही होगा। जो व्यक्ति वैदिक मंत्रो का कलयुग में उच्चारण करेगा उसकी व्यथा एक ऐसे प्यासे मनुष्य के सामान होगी जो गंगा नदी के समीप प्यासे होने पर कुआँ खोद कर अपनी प्यास बुझाने की कोशिश में अपना समय और उर्जा को व्यर्थ करता है। कलयुग में वैदिक मंत्रो का प्रभाव ना के बराबर रह जाएगा। और गृहस्त लोग जो वैसे ही बहुत कम नियमो को जानते हैं उनकी पूजा का फल उन्हे पूर्णतः नही मिल पायेगा। महादेव ने बताया की वैदिक मंत्रो का पूर्ण फल सतयुग, द्वापर तथा त्रेता युग में ही मिलेगा.
तब माँ पार्वती ने महादेव से पुछा की कलयुग में मनुष्य अपने पापों का नाश कैसे करेंगे? और जो फल उन्हे पूजा अर्चना से मिलता है वह उन्हे कैसे मिलेगा?
इस पर शिव जी ने कहा की कलयुग में तंत्र साधना ही सतयुग की वैदिक पूजा की तरह फल देगा। तंत्र में साधक को बंधन मुक्त कर दिया जाएगा। वह अपने तरीके से इश्वर को प्राप्त करने के लिए अनेको प्रकार के विज्ञानिक प्रयोग करेगा।
परन्तु ऐसा करने के लिए साधक के अन्दर इश्वर को पाने का नशा और प्रयोगों से कुछ प्राप्त करने की तीव्र इच्षा होनी चाहिए। तंत्र के प्रायोगिक क्रियाओं को करने के लिए एक तांत्रिक अथवा साधक को सही मंत्र, तंत्र और यन्त्र का ज्ञान जरुरी है।
मंत्र: मंत्र एक सिद्धांत को कहते हैं। किसी भी आविष्कार को सफल बनाने के लिए एक सही मार्ग और सही नियमों की आवश्यकता होती है। मंत्र वही सिद्धांत है जो एक प्रयोग को सफल बनाने में तांत्रिक को मदद करता है। मंत्र द्वारा ही यह पता चलता है की कौन से तंत्र को किस यन्त्र में समिलित कर के लक्ष्य तक पंहुचा जा सकता है।
मंत्र के सिद्ध होने पर ही पूरा प्रयोग सफल होता है। जैसे क्रिंग ह्रंग स्वाहा एक सिद्ध मंत्र है।
मंत्र मन तथा त्र शब्दों से मिल कर बना है। मंत्र में मन का अर्थ है मनन करना अथवा ध्यानस्त होना तथा त्र का अर्थ है रक्षा। इस प्रकार मंत्र का अर्थ है ऐसा मनन करना जो मनन करने वाले की रक्षा कर सके। अर्थात मन्त्र के उच्चारण या मनन से मनुष्य की रक्षा होती है।
तंत्र: श्रृष्टि में इश्वर ने हरेक समस्या का समाधान स्वयम दिया हुआ है। ऐसी कोई बीमारी या परेशानी नही जिसका समाधान इश्वर ने इस धरती पर किसी न किसी रूप में न दिया हो। तंत्र श्रृष्टि में पाए गए रासायनिक या प्राकृतिक वस्तुओं के सही समाहार की कला को कहते हैं। इस समाहार से बनने वाली उस औषधि या वस्तु से प्राणियों का कल्याण होता है।
तंत्र तन तथा त्र शब्दों से मिल कर बना है। जो वस्तु इस तन की रक्षा करे उसे ही तंत्र कहते हैं।
यन्त्र: मंत्र और तंत्र को यदि सही से प्रयोग किया जाए तो वह प्राणियों के कष्ट दूर करने में सफल है। पर तंत्र के रसायनों को एक उचित पात्र को आवश्यकता होती है। ताकि साधारण मनुष्य उस पात्र को आसानी से अपने पास रख सके या उसका प्रयोग कर सके। इस पात्र या साधन को ही यन्त्र कहते हैं। एक ऐसा पात्र जो तंत्र और मन्त्र को अपने में समिलित कर के आसानी से प्राणियों के कष्ट दूर करे वही यन्त्र है। हवन कुंड को सबसे श्रेष्ठ यन्त्र मन गया है। आसन, तलिस्मान, ताबीज इत्यादि भी यंत्र माने जाते है। कई प्रकार को आकृति को भी यन्त्र मन गया है। जैसे श्री यन्त्र, काली यन्त्र, महा मृतुन्जय यन्त्र इत्यादि।
यन्त्र शब्द यं तथा त्र के मिलाप से बना है। यं को पुर्व में यम यानी काल कहा जाता था। इसलिए जो यम से हमारी रक्षा करे उसे ही यन्त्र कहा जाता है।
इसलिए एक सफल तांत्रिक साधक को मंत्र, तंत्र और यन्त्र का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए। विज्ञानं के प्रयोगों जैसे ही यदि तीनो में से किसी की भी मात्रा या प्रकार ग़लत हुई तो सफलता नही मिलेगी।
Tuesday, 7 April 2009
हमारे शरीर के अंगो पर तिल के होने का महत्त्व
हमारे शरीर पर कई प्रकार के जन्मजात अथवा जीवन काल के दौरान निकले निशान पाए जाते हैं। जिन्हे हम तिल, मस्सा एवं लाल मस्सा के नाम से सुनते आए हैं। शास्त्रों के अनुसार हमारे शरीर पर पाए गए यह निशान हमारे भविष्य और चरित्र के बारे में बहुत कुछ दर्शाते हैं। मैं आज शरीर पर इन तिलों के होने का महत्त्व वर्णन कर रहा हूँ।
अपने २० साल के अनुभव से तथा अनेक लोगों पर परिक्षण करने के उपरांत ही मैं इस अनुभव को आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ।
तिल तथा मस्से का होना दोनों एक ही प्रभाव देता है। तिल आपके सभी प्रकार के शारीरिक, आर्थिक एवं चरित्र के बारे में काफी कुछ दर्शा देता है। तिल का प्रभाव हमारे लिंग से कभी भी अलग नही होता। तिल का प्रभाव स्त्री एवं पुरूष दोनों के लिए एक सामान होता है.
मस्तक ,माथा अथवा ललाट :
१> ललाट के मध्य भाग में तिल का होना भाग्यवान माना जाता है।
२> ललाट पर बाएँ भंव के ऊपर तिल होना विलासिता को दर्शाता है। ऐसे व्यक्ति अपने रखे धन सम्पति को विलासिता में लिप्त होकर बरबाद कर देते हैं।
३> ललाट पर दाँए भंव के ऊपर तिल होना भी विलासिता को दर्शाता है परन्तु ऐसे व्यक्ति स्वयं धन अर्जित कर के उसे बरबाद कर देते हैं।
कान अथवा कर्ण:
१> बाएँ कान के सामने की तरफ़ कहीं भी तिल का होना व्यक्ति के रहस्यमयी होने के गुण को दर्शाता है। साथ ही साथ ऐसे व्यक्ति का विवाह अधिक उम्र होने के पश्चात् होता है।
२> बाएँ कान के पीछे की तरफ़ तिल का होना व्यक्ति के ग़लत कार्यो के प्रति झुकाव को दर्शाता है।
३> दाँए कान के सामने की तरफ़ कही भी तिल हो तो वह व्यक्ति बहुत कम आयु में ही धनवान हो जाता है। साथ ही साथ व्यक्ति का जीवन साथी सुंदर होता है।
४> दाँए कान के पीछे अगर तिल है तो यह तिल कान में किसी भी प्रकार के रोग होने की सम्भावना व्यक्त करता है।
आँख,नेत्र अथवा नयन:
१> बाएँ आँख के भीतर सफ़ेद भाग में तिल का होना चरित्र हीनता का सूचक है।
२> बाएँ आँख के पुतली पर तिल का होना भी चरित्र हीनता का सूचक है परन्तु इसका प्रभाव भीतर के तिल से कम होता है।
३> बाएँ आँख की नीचे की पलकों पर तिल होना व्यक्ति के आलसीपन और विलासी चरित्र को दर्शाता है। ४> दाँए आँख के भीतर सफ़ेद भाग में अगर तिल हो तो वह व्यक्ति भी चरित्रहीन होता है अथवा ऐसे व्यक्ति के जीवन का अंत या तो हत्या से होता है या फ़िर वह आत्मदाह कर लेता है
५> दाँए आँख के ऊपर का तिल आँखों से सम्बंधित रोग का सूचक है। एवं ऐसे व्यक्ति अविश्वासी होते हैं। ना यह किसी पर विश्वास करते है और न ही विश्वास के पात्र होते हैं।
६> दाँए आँख के नीचे की पलकों पर तिल का होना उस व्यक्ति के कम आयु से ही विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण का सूचक है।
नाक:
१> नाक के अग्र भाग पर तिल हो तो ऐसे व्यक्ति लक्ष्य बना कर चलने वाले होते हैं तथा किसी भी कार्य को उस समय तक नही करते जब तक की वह उस कार्य के लिए स्वयं को पूर्ण सुरक्षित महसूस न कर लें। साथ ही साथ यह व्यक्ति भी विपरीत लिंग के प्रति बहुत आकर्षित होता है।
२> इसके अलावा अगर नाक पर कहीं भी तिल हो तो व्यक्ति को नाक सम्बंधित कोई भी रोग हो सकता है।
३> नाक के नीचे (मूछ वाली जगह ) पर दाँए अथवा बाएँ अगर कहीं भी तिल हो वह व्यक्ति भी अधिक विलासी होगा तथा नींद बहुत अधिक पसंद करेगा।
होंठ:
१> उपरी होंठ के बाएँ तरफ़ तिल होना जीवनसाथी के साथ लगातार विवाद होने का सूचक है।
२> उपरी होंठ के दाँए तरफ़ तिल हो तो जीवनसाथी का पूर्ण साथ मिलता है।
३> निचले होंठ के बाएँ तरफ़ तिल होना किसी विशेष रोग के होने का सूचक होता है एवं ऐसे व्यक्ति अच्छे भोजन खाने तथा नए वस्त्र पहनने के शौकीन होते हैं।
४> निचले होंठ के दाँए तरफ़ तिल हो तो वह व्यक्ति अपने क्षेत्र में बहुत प्रसिद्दि प्राप्त करते हैं। साथ ही साथ इन्हे भोजन से कोई खास लगाव नही होता है। लेकिन विपरीत लिंग इन्हे अधिक आकर्षित करते हैं।
गाल:
१> जिस व्यक्ति के बाएँ गाल,नाक तथा ठुड्डी पर तीनो जगह तिल हो तो ऐसे व्यक्ति के पास स्थायी धन हमेशा रहता है। परन्तु अगर सिर्फ़ कही एक जगह ही तिल हो तो उसे पैसे का आभाव नही होता।
२> इसी प्रकार दाँए गाल,नाक तथा ठुड्डी पर तीनो जगह तिल हो तो ऐसे व्यक्ति भी धनवान होते हैं परन्तु घमंडी भी होते हैं। एसऐ व्यक्ति अपना धन किसी भी सामाजिक कार्य में नही लगते हैं। परन्तु अगर सिर्फ़ कही एक जगह ही तिल हो तो उसे पैसे का आभाव नही होता।
३> दाँए गाल पर तिल होना व्यक्ति के घमंडी होने का सूचक है।
कंठ,गला तथा गर्दन:
१> कंठ पर तिल का होना सुरीली आवाज़ का सूचक है तथा ऐसा व्यक्ति संगीत में रूचि रखता है।
२> गले पर और कहीं भी तिल होने वाले व्यक्ति संगीत के शौखिन होते हैं परन्तु उन्हे गले सम्बंधित रोग एवं कुछ व्यक्तियों में दमा जैसे रोग भी पाए गए हैं।
३> अगर गले के नीचे तिल हो तो ऐसा व्यक्ति गायक होता है। एवं उसकी आवाज़ बहुत सुरीली होती है। ४> गले के पीछे अगर तिल हो तो रीढ़ सम्बंधित रोग होते हैं।
सीना अथवा छाती:
1> बाएँ तरफ़ सीने में तिल का होना सीने या ह्रदय रोग की शिकायत होने एवं मध्यस्तर के जीवनसाथी का मिलना तथा अधिक उम्र में शादी होने की स्थिति को दर्शाता है। वक्ष स्थल पर यदि तिल हो तो वह व्यक्ति अधिक कामुक होता है और अनेको प्रकार की बदनामी को झेलता है।
२> दाँए तरफ़ सीने में तिल का होने से सुंदर जीवनसाथी मिलता है एवं यह व्यक्ति धनवान भी होता है। परन्तु यदि तिल वक्ष स्थल पर है तो इसका प्रभाव भी बाएँ तिल के सामान होता है।
उदर अथवा पेट:
१> उदर के बाएँ तरफ़ तिल होना पेट सम्बन्धी रोगों का सूचक है एवं अधिकतम लोगो में पाया गया है की उन्हे शल्य चिकित्सा भी करनी पड़ी है। ऐसे लोग भोजन अधिक नही कर पाते है।
२> उदर के दाँए तरफ़ तिल होना व्यक्ति के भोजन के प्रति अधिक लगाव को दर्शाता है। साथ ही साथ यह आरामदेह व्यक्ति होते हैं।
३> नाडी के बीचोबीच तिल का होना नाडी सम्बंधित रोगों तथा लकवे की बीमारी के होने का सूचक है।
४> नाडी के नीचे तिल यदि हो तो वह व्यक्ति कम आयु में ही मैथुन क्रिया में कमजोर हो जाता है एवं अप्पेंधिक्स और होर्निया जैसे रोगों से पीड़ित होने की संभावना अधिक रहती है।
गुप्तांग:
१> पुरूष के गुप्तांग पर यदि तिल हो तो वह पुरूष अधिक कामुक एवं एक से अधिक स्त्रियों के संपर्क में रहता है।साथ ही साथ उस व्यक्ति हो पुत्र प्राप्ति की सम्भावना अधिक होती है एवं ४५-५० के बीच की आयु में उसे शिथिल इन्द्रियों का रोग हो जाता है।
२> स्त्री के गुप्तांग पर यदि बाएँ तरफ़ तिल है तो वह स्त्री अधिक कामुक, कम आयु से ही विपरीत लिंग के संपर्क में अधिक रहना अथवा इन्द्रियों सम्बंधित रोगों से पीड़ित होती हैं।ऐसी स्त्रियाँ कन्या को अधिक जनम देती हैं।यदि तिल दाँए तरफ़ है तो यह भी अधिक कामुक होती है तथा गुप्तांग में किसी प्रकार की फंगल रोग से पीड़ित हो जाती हैं। परन्तु ऐसी स्त्रियाँ कन्या से अधिक पुत्र को जनम देती हैं। तिल के अग्र्र भाग में नीचे होने पर वह स्त्री भी कामुक होती है पर वह कम आयु में ही विधवा हो जाती है।
हाथ, उंगलियाँ अथवा भुजा:
१> हाथ के पंजे में अगर किसी भी ग्रह के स्थान पर यदि तिल है तो वह उसे ग्रह को कमजोर करता है तथा हानि ही करता है। तिल हाथपर अन्दर की तरफ हो या फ़िर बहार की तरफ़ प्रभाव यही रहता है। कुछ लोगों को यह भ्रान्ति है की हाथ के पंजे का तिल शुभ होता है। परन्तु ऐसा नही होता।
२> तर्जनी ऊँगली (पहली ऊँगली ) पर कहीं भी तिल हों तो ऐसा व्यक्ति कितना भी धन कमाए उसके पास पैसा कभी नही टिकता। ऐसे व्यक्ति को आँखों में कमजोरी की शिकायत रहती है तथा कम आत्मविश्वाशी होता है।
तर्जनी ऊँगली के नीचे बृहस्पत का पर्वत होता है इसलिए अगर उस पर्वत पर तिल है तो वह व्यक्ति अपने पूर्वजो के रखे हुए धन को भी गवा देता है तथा अंत समय में दरिद्र होके रहता है।
३> मध्यमा ऊँगली में कही भी तिल है तो यह व्यक्ति अनेको बार दुर्घटना का शिकार होता है, एवं पुलिस, थाना अथवा कचहरी का आना जाना लगा रहता है। ऐसे व्यक्ति को जीवन भर हर कार्य के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ता है साथ ही साथ कोई भी काम में स्थिर नही रह पता है। मध्यमा उंगली के नीचे शनि का पर्वत होता है। शनि पर यदि तिल है तो इस व्यक्ति की आकाल मृत्यु अवश्य निश्चित हैअन्यथा उसे आजीवन कारावास झेलना निश्चित है।
४> अनामिका ऊँगली में कही भी तिल होंतो ऐसे व्यक्ति का पढ़ाई में मन कम लगता है तथा उसकी प्रतिभा धूमिल होती है। ऐसे व्यक्ति ह्रदय सम्बन्धी रोग का शिकार होते हैं। अनामिका ऊँगली के नीचे सूर्य का पर्वत होता है। अगर इस पर्वत पर तिल है तो यह व्यक्ति अपने जीवन में किसी भी कार्य में सफल नही होता है। साथ ही साथ बदनामी भी झेलनी पड़ती है और मृत्यु ह्रदय रोग से होती है।
५> कानी अथवा कनिष्क ऊँगली पर यदि तिल हों तो ऐसे व्यक्ति का अपने जीवनसाथी के साथ हमेशा विवाद होता रहता है, साथ ही उसे चर्म रोग ( सफ़ेद दाग ) की शिकायत रहती है। कानी ऊँगली के नीचे बुद्ध का पर्वत होता है.यदि तिल इस पर्वत पर है तो ऐसे व्यक्ति की शल्य चिकित्सा जरुर होती है। ऐसे स्त्रियों के बच्चे भी शल्य चिकत्सा के बाद होते है।
६> अंगूठे पर तिल होने पर उस व्यक्ति को यश नही मिलता। अंगूठे के नीचे शुक्र का पर्वत होता है। यदि शुक्र पर्वत पर तिल है तो ऐसे व्यक्ति को गुप्त रोगों की शिकायत रहती है।ऐसे लोगों को पुत्र कष्ट होता है।
७> यदि जीवनरेखा पर तिल हो तो ऐसे व्यक्ति की कम आयु में ही किसी विशेष रोग से मृत्यु होती है। शुक्र और बृहस्पत पर्वत के बीच में मंगल का स्थान होता है, इस स्थान पर यदि तिल हो तो उस व्यक्ति को मानसिक बीमारी होने की सम्भावना रहती है। यदि दिमाग रेखा पर तिल हो ऐसे व्यक्ति भी मस्तक सम्बन्धी रोग से पीड़ित होते है साथ ही साथ नौकरी में अनेको प्रकार की बाधाएं होती हैं। ह्रदय रेखा पर यदि तिल हो तो ह्रदय सम्बन्धी रोगों के कारन कम आयु में ही मृत्यु होती है। चन्द्र रेखा पर तिल होने पर ऐसे व्यक्ति मानसिक रोग से पीड़ित होते है एवं इनके शरीर पर तापमान का अधिक प्रभाव होता है। राहू ग्रह के पर्वत पर तिल होने पर ऐसे व्यक्ति किसी भी व्यवसाय में सफल नही होते और आजीवन उदर रोग से परेशान रहते हैं। केतु ग्रह पर यदि तिल हो तो ऐसे व्यक्ति पर चरित्रहीनता का आरोप लगता रहता है तथा जोडो में आजीवन दर्द रहता है।
८ > मणिबंध ( कलाई ) पर अगर तिल हो तो ऐसे व्यक्ति को यश नही मिलता है। ऐसे व्यक्ति को पुत्र कष्ट भी होता है।
यदि यही सारे तिल हाथ, उँगलियों पर ऊपर की तरफ़ हो तो सारे वही प्रभाव रहते है परन्तु उनका असर ५० प्रतिषत कम हो जाता है। यदि तिल दाँए हाथ में है तो किसी पूजा या अनुष्ठान से उसके प्रभाव को कम किया जा सकता है परन्तु यदि वही तिल बाएँ हाथ में है तो उसका प्रभाव कम नही हो सकता और व्यक्ति को उस तिल के प्रभाव झेलने ही पड़ते हैं।
९>बाएँ भुजा ( कोहनी से नीचे ) यदि कही भी तिल है तो उस व्यक्ति की पढ़ाई में बाधा उत्पन होती है एवं कई लोगों में ऐसा भी पाया गया है की उनका मन पढ़ाई से भाग जाता है। कोहनी से ऊपर अगर कही भी तिल है तो यह व्यक्ति
शारीरिक रूप से कमजोर होता है।
१०> दाँए भुजा (कोहनि से नीचे ) यदि कही भी तिल है तो यह व्यक्ति अपने कलम की कमाई खाते है यानि अपना जीवन यापन स्वयम करते हैं। यदि कोहनी से ऊपर की तरफ़ कही भी तिल है तो यह व्यक्ति बहुत साहसी होता है।
११> यदि कोहनी पर तिल है तो उस व्यक्ति को हमेशा जोडो के दर्द की तकलीफ रहेगी। बाएँ हाथ के तिल का असर कभी ख़त्म नही हो सकता है। यदि दाँए हाथ की कोहनी पर तिल है तो पूजा या उपचार करने से कष्ट दूर हो सकता है।
पैर:
१> यदि पैर पर भी हाथ की तरह उन्ही जगह पर तिल है तो सारे प्रभाव हाथ जैसे ही होते है। परन्तु माना गया है की हाथ के तिल का प्रभाव पैर के तिल से ज्यादा होता है।
२> बाएँ पैर की जांघ पर यदि तिल हो तो यह व्यक्ति भोगी होता है। एवं कुछ लोगों में बवासीर होने की शिकायत भी पाई गई है। दाँए पैर की जांघ पर यदि तिल हो तो ऐसे व्यक्ति भी भोगी विलासी होते है। ऐसे व्यक्तियों को विपरीत लिंग के प्रति अधिक आकर्षण रहता है।
३> यदि घुटने पर तिल हो तो जोडो के दर्द अथवा मूत्र सम्बन्धी रोग हो सकते हैं।
पीठ:
पीठ के रीढ़ के दाए हिस्से पर उपर की तरफ़ यदि तिल हो तो यह व्यक्ति धनवान होता है एवम अपनो द्वारा अनेको बार मुसीबत आने पर मदद पता है.दाए ओर कमर से उपर यदि तिल हो तो ऐसा व्यक्ति खाने पीने का शौखिन होता है। तथा पेट के रोगों से ग्रस्त रह सकता है।यदि तिल कमर पर दाईं तरफ़ हो तो यह व्यक्ति अधिक कामुक होता है.बाएँ तरफ़ ऊपर की तरफ़ यदि तिल हो तो यह व्यक्ति बहुत कठिन परिश्रम के बाद ही पैसा कमाता है एवं अपने लोग इसे धोखा दिया करते हैं। यदि नीचे बैएँ तरफ़ तिल हो तो यह व्यक्ति आजीवन उदर रोग से ग्रस्त रहता है। तथा शल्य चिकित्सा की सम्भावना अधिक होती है। यदि तिल कमर पर हो तो यह व्यक्ति आजीवन कमर के दर्द से परेशान रहता है। तथा यदि स्त्री है तो उसे श्वेत प्रदर का रोग हो सकता है और पुरूष हो तो स्वप्नदोष की बेमारी अधिक होती है। रीढ़ पर ऊपर से नीचे यदि कहीं भी तिल हो तो रीढ़ की बीमारी या शरीर में जोडो के दर्द की शिकायत होती है। तथा ऐसे लोग हमेशा अपनों से ही धोखा खाते हैं और इनके पीठ पीछे हमेशा वार होता है। अधिकतर पाया गया है ऐसे लोग अपनों से ही धोखा खाते हैं।
हाथ के कांख:
दाँए कांख में यदि तिल हो तो यह व्यक्ति बहुत धनवान होता है तथा कंजूस भी होता है। बाएँ कांख में तिल हो तो यह व्यक्ति पैसे तो कमाते हैं लेकिन रोग और भोग में ही पैसो का नाश हो जाता है।
हिप:
यदि बाएँ हिप पर तिल हो तो यह व्यक्ति बवासीर सम्बन्धी या भगंदर सम्बन्धी रोगों से पीड़ित हो सकता है। यदि दाँए हिप पर तिल हो तो यह व्यक्ति व्यापारी है तो अपने व्यापर में बहुत आगे बढ़ता है
अपने २० साल के अनुभव से तथा अनेक लोगों पर परिक्षण करने के उपरांत ही मैं इस अनुभव को आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ।
तिल तथा मस्से का होना दोनों एक ही प्रभाव देता है। तिल आपके सभी प्रकार के शारीरिक, आर्थिक एवं चरित्र के बारे में काफी कुछ दर्शा देता है। तिल का प्रभाव हमारे लिंग से कभी भी अलग नही होता। तिल का प्रभाव स्त्री एवं पुरूष दोनों के लिए एक सामान होता है.
मस्तक ,माथा अथवा ललाट :
१> ललाट के मध्य भाग में तिल का होना भाग्यवान माना जाता है।
२> ललाट पर बाएँ भंव के ऊपर तिल होना विलासिता को दर्शाता है। ऐसे व्यक्ति अपने रखे धन सम्पति को विलासिता में लिप्त होकर बरबाद कर देते हैं।
३> ललाट पर दाँए भंव के ऊपर तिल होना भी विलासिता को दर्शाता है परन्तु ऐसे व्यक्ति स्वयं धन अर्जित कर के उसे बरबाद कर देते हैं।
कान अथवा कर्ण:
१> बाएँ कान के सामने की तरफ़ कहीं भी तिल का होना व्यक्ति के रहस्यमयी होने के गुण को दर्शाता है। साथ ही साथ ऐसे व्यक्ति का विवाह अधिक उम्र होने के पश्चात् होता है।
२> बाएँ कान के पीछे की तरफ़ तिल का होना व्यक्ति के ग़लत कार्यो के प्रति झुकाव को दर्शाता है।
३> दाँए कान के सामने की तरफ़ कही भी तिल हो तो वह व्यक्ति बहुत कम आयु में ही धनवान हो जाता है। साथ ही साथ व्यक्ति का जीवन साथी सुंदर होता है।
४> दाँए कान के पीछे अगर तिल है तो यह तिल कान में किसी भी प्रकार के रोग होने की सम्भावना व्यक्त करता है।
आँख,नेत्र अथवा नयन:
१> बाएँ आँख के भीतर सफ़ेद भाग में तिल का होना चरित्र हीनता का सूचक है।
२> बाएँ आँख के पुतली पर तिल का होना भी चरित्र हीनता का सूचक है परन्तु इसका प्रभाव भीतर के तिल से कम होता है।
३> बाएँ आँख की नीचे की पलकों पर तिल होना व्यक्ति के आलसीपन और विलासी चरित्र को दर्शाता है। ४> दाँए आँख के भीतर सफ़ेद भाग में अगर तिल हो तो वह व्यक्ति भी चरित्रहीन होता है अथवा ऐसे व्यक्ति के जीवन का अंत या तो हत्या से होता है या फ़िर वह आत्मदाह कर लेता है
५> दाँए आँख के ऊपर का तिल आँखों से सम्बंधित रोग का सूचक है। एवं ऐसे व्यक्ति अविश्वासी होते हैं। ना यह किसी पर विश्वास करते है और न ही विश्वास के पात्र होते हैं।
६> दाँए आँख के नीचे की पलकों पर तिल का होना उस व्यक्ति के कम आयु से ही विपरीत लिंग के प्रति आकर्षण का सूचक है।
नाक:
१> नाक के अग्र भाग पर तिल हो तो ऐसे व्यक्ति लक्ष्य बना कर चलने वाले होते हैं तथा किसी भी कार्य को उस समय तक नही करते जब तक की वह उस कार्य के लिए स्वयं को पूर्ण सुरक्षित महसूस न कर लें। साथ ही साथ यह व्यक्ति भी विपरीत लिंग के प्रति बहुत आकर्षित होता है।
२> इसके अलावा अगर नाक पर कहीं भी तिल हो तो व्यक्ति को नाक सम्बंधित कोई भी रोग हो सकता है।
३> नाक के नीचे (मूछ वाली जगह ) पर दाँए अथवा बाएँ अगर कहीं भी तिल हो वह व्यक्ति भी अधिक विलासी होगा तथा नींद बहुत अधिक पसंद करेगा।
होंठ:
१> उपरी होंठ के बाएँ तरफ़ तिल होना जीवनसाथी के साथ लगातार विवाद होने का सूचक है।
२> उपरी होंठ के दाँए तरफ़ तिल हो तो जीवनसाथी का पूर्ण साथ मिलता है।
३> निचले होंठ के बाएँ तरफ़ तिल होना किसी विशेष रोग के होने का सूचक होता है एवं ऐसे व्यक्ति अच्छे भोजन खाने तथा नए वस्त्र पहनने के शौकीन होते हैं।
४> निचले होंठ के दाँए तरफ़ तिल हो तो वह व्यक्ति अपने क्षेत्र में बहुत प्रसिद्दि प्राप्त करते हैं। साथ ही साथ इन्हे भोजन से कोई खास लगाव नही होता है। लेकिन विपरीत लिंग इन्हे अधिक आकर्षित करते हैं।
गाल:
१> जिस व्यक्ति के बाएँ गाल,नाक तथा ठुड्डी पर तीनो जगह तिल हो तो ऐसे व्यक्ति के पास स्थायी धन हमेशा रहता है। परन्तु अगर सिर्फ़ कही एक जगह ही तिल हो तो उसे पैसे का आभाव नही होता।
२> इसी प्रकार दाँए गाल,नाक तथा ठुड्डी पर तीनो जगह तिल हो तो ऐसे व्यक्ति भी धनवान होते हैं परन्तु घमंडी भी होते हैं। एसऐ व्यक्ति अपना धन किसी भी सामाजिक कार्य में नही लगते हैं। परन्तु अगर सिर्फ़ कही एक जगह ही तिल हो तो उसे पैसे का आभाव नही होता।
३> दाँए गाल पर तिल होना व्यक्ति के घमंडी होने का सूचक है।
कंठ,गला तथा गर्दन:
१> कंठ पर तिल का होना सुरीली आवाज़ का सूचक है तथा ऐसा व्यक्ति संगीत में रूचि रखता है।
२> गले पर और कहीं भी तिल होने वाले व्यक्ति संगीत के शौखिन होते हैं परन्तु उन्हे गले सम्बंधित रोग एवं कुछ व्यक्तियों में दमा जैसे रोग भी पाए गए हैं।
३> अगर गले के नीचे तिल हो तो ऐसा व्यक्ति गायक होता है। एवं उसकी आवाज़ बहुत सुरीली होती है। ४> गले के पीछे अगर तिल हो तो रीढ़ सम्बंधित रोग होते हैं।
सीना अथवा छाती:
1> बाएँ तरफ़ सीने में तिल का होना सीने या ह्रदय रोग की शिकायत होने एवं मध्यस्तर के जीवनसाथी का मिलना तथा अधिक उम्र में शादी होने की स्थिति को दर्शाता है। वक्ष स्थल पर यदि तिल हो तो वह व्यक्ति अधिक कामुक होता है और अनेको प्रकार की बदनामी को झेलता है।
२> दाँए तरफ़ सीने में तिल का होने से सुंदर जीवनसाथी मिलता है एवं यह व्यक्ति धनवान भी होता है। परन्तु यदि तिल वक्ष स्थल पर है तो इसका प्रभाव भी बाएँ तिल के सामान होता है।
उदर अथवा पेट:
१> उदर के बाएँ तरफ़ तिल होना पेट सम्बन्धी रोगों का सूचक है एवं अधिकतम लोगो में पाया गया है की उन्हे शल्य चिकित्सा भी करनी पड़ी है। ऐसे लोग भोजन अधिक नही कर पाते है।
२> उदर के दाँए तरफ़ तिल होना व्यक्ति के भोजन के प्रति अधिक लगाव को दर्शाता है। साथ ही साथ यह आरामदेह व्यक्ति होते हैं।
३> नाडी के बीचोबीच तिल का होना नाडी सम्बंधित रोगों तथा लकवे की बीमारी के होने का सूचक है।
४> नाडी के नीचे तिल यदि हो तो वह व्यक्ति कम आयु में ही मैथुन क्रिया में कमजोर हो जाता है एवं अप्पेंधिक्स और होर्निया जैसे रोगों से पीड़ित होने की संभावना अधिक रहती है।
गुप्तांग:
१> पुरूष के गुप्तांग पर यदि तिल हो तो वह पुरूष अधिक कामुक एवं एक से अधिक स्त्रियों के संपर्क में रहता है।साथ ही साथ उस व्यक्ति हो पुत्र प्राप्ति की सम्भावना अधिक होती है एवं ४५-५० के बीच की आयु में उसे शिथिल इन्द्रियों का रोग हो जाता है।
२> स्त्री के गुप्तांग पर यदि बाएँ तरफ़ तिल है तो वह स्त्री अधिक कामुक, कम आयु से ही विपरीत लिंग के संपर्क में अधिक रहना अथवा इन्द्रियों सम्बंधित रोगों से पीड़ित होती हैं।ऐसी स्त्रियाँ कन्या को अधिक जनम देती हैं।यदि तिल दाँए तरफ़ है तो यह भी अधिक कामुक होती है तथा गुप्तांग में किसी प्रकार की फंगल रोग से पीड़ित हो जाती हैं। परन्तु ऐसी स्त्रियाँ कन्या से अधिक पुत्र को जनम देती हैं। तिल के अग्र्र भाग में नीचे होने पर वह स्त्री भी कामुक होती है पर वह कम आयु में ही विधवा हो जाती है।
हाथ, उंगलियाँ अथवा भुजा:
१> हाथ के पंजे में अगर किसी भी ग्रह के स्थान पर यदि तिल है तो वह उसे ग्रह को कमजोर करता है तथा हानि ही करता है। तिल हाथपर अन्दर की तरफ हो या फ़िर बहार की तरफ़ प्रभाव यही रहता है। कुछ लोगों को यह भ्रान्ति है की हाथ के पंजे का तिल शुभ होता है। परन्तु ऐसा नही होता।
२> तर्जनी ऊँगली (पहली ऊँगली ) पर कहीं भी तिल हों तो ऐसा व्यक्ति कितना भी धन कमाए उसके पास पैसा कभी नही टिकता। ऐसे व्यक्ति को आँखों में कमजोरी की शिकायत रहती है तथा कम आत्मविश्वाशी होता है।
तर्जनी ऊँगली के नीचे बृहस्पत का पर्वत होता है इसलिए अगर उस पर्वत पर तिल है तो वह व्यक्ति अपने पूर्वजो के रखे हुए धन को भी गवा देता है तथा अंत समय में दरिद्र होके रहता है।
३> मध्यमा ऊँगली में कही भी तिल है तो यह व्यक्ति अनेको बार दुर्घटना का शिकार होता है, एवं पुलिस, थाना अथवा कचहरी का आना जाना लगा रहता है। ऐसे व्यक्ति को जीवन भर हर कार्य के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ता है साथ ही साथ कोई भी काम में स्थिर नही रह पता है। मध्यमा उंगली के नीचे शनि का पर्वत होता है। शनि पर यदि तिल है तो इस व्यक्ति की आकाल मृत्यु अवश्य निश्चित हैअन्यथा उसे आजीवन कारावास झेलना निश्चित है।
४> अनामिका ऊँगली में कही भी तिल होंतो ऐसे व्यक्ति का पढ़ाई में मन कम लगता है तथा उसकी प्रतिभा धूमिल होती है। ऐसे व्यक्ति ह्रदय सम्बन्धी रोग का शिकार होते हैं। अनामिका ऊँगली के नीचे सूर्य का पर्वत होता है। अगर इस पर्वत पर तिल है तो यह व्यक्ति अपने जीवन में किसी भी कार्य में सफल नही होता है। साथ ही साथ बदनामी भी झेलनी पड़ती है और मृत्यु ह्रदय रोग से होती है।
५> कानी अथवा कनिष्क ऊँगली पर यदि तिल हों तो ऐसे व्यक्ति का अपने जीवनसाथी के साथ हमेशा विवाद होता रहता है, साथ ही उसे चर्म रोग ( सफ़ेद दाग ) की शिकायत रहती है। कानी ऊँगली के नीचे बुद्ध का पर्वत होता है.यदि तिल इस पर्वत पर है तो ऐसे व्यक्ति की शल्य चिकित्सा जरुर होती है। ऐसे स्त्रियों के बच्चे भी शल्य चिकत्सा के बाद होते है।
६> अंगूठे पर तिल होने पर उस व्यक्ति को यश नही मिलता। अंगूठे के नीचे शुक्र का पर्वत होता है। यदि शुक्र पर्वत पर तिल है तो ऐसे व्यक्ति को गुप्त रोगों की शिकायत रहती है।ऐसे लोगों को पुत्र कष्ट होता है।
७> यदि जीवनरेखा पर तिल हो तो ऐसे व्यक्ति की कम आयु में ही किसी विशेष रोग से मृत्यु होती है। शुक्र और बृहस्पत पर्वत के बीच में मंगल का स्थान होता है, इस स्थान पर यदि तिल हो तो उस व्यक्ति को मानसिक बीमारी होने की सम्भावना रहती है। यदि दिमाग रेखा पर तिल हो ऐसे व्यक्ति भी मस्तक सम्बन्धी रोग से पीड़ित होते है साथ ही साथ नौकरी में अनेको प्रकार की बाधाएं होती हैं। ह्रदय रेखा पर यदि तिल हो तो ह्रदय सम्बन्धी रोगों के कारन कम आयु में ही मृत्यु होती है। चन्द्र रेखा पर तिल होने पर ऐसे व्यक्ति मानसिक रोग से पीड़ित होते है एवं इनके शरीर पर तापमान का अधिक प्रभाव होता है। राहू ग्रह के पर्वत पर तिल होने पर ऐसे व्यक्ति किसी भी व्यवसाय में सफल नही होते और आजीवन उदर रोग से परेशान रहते हैं। केतु ग्रह पर यदि तिल हो तो ऐसे व्यक्ति पर चरित्रहीनता का आरोप लगता रहता है तथा जोडो में आजीवन दर्द रहता है।
८ > मणिबंध ( कलाई ) पर अगर तिल हो तो ऐसे व्यक्ति को यश नही मिलता है। ऐसे व्यक्ति को पुत्र कष्ट भी होता है।
यदि यही सारे तिल हाथ, उँगलियों पर ऊपर की तरफ़ हो तो सारे वही प्रभाव रहते है परन्तु उनका असर ५० प्रतिषत कम हो जाता है। यदि तिल दाँए हाथ में है तो किसी पूजा या अनुष्ठान से उसके प्रभाव को कम किया जा सकता है परन्तु यदि वही तिल बाएँ हाथ में है तो उसका प्रभाव कम नही हो सकता और व्यक्ति को उस तिल के प्रभाव झेलने ही पड़ते हैं।
९>बाएँ भुजा ( कोहनी से नीचे ) यदि कही भी तिल है तो उस व्यक्ति की पढ़ाई में बाधा उत्पन होती है एवं कई लोगों में ऐसा भी पाया गया है की उनका मन पढ़ाई से भाग जाता है। कोहनी से ऊपर अगर कही भी तिल है तो यह व्यक्ति
शारीरिक रूप से कमजोर होता है।
१०> दाँए भुजा (कोहनि से नीचे ) यदि कही भी तिल है तो यह व्यक्ति अपने कलम की कमाई खाते है यानि अपना जीवन यापन स्वयम करते हैं। यदि कोहनी से ऊपर की तरफ़ कही भी तिल है तो यह व्यक्ति बहुत साहसी होता है।
११> यदि कोहनी पर तिल है तो उस व्यक्ति को हमेशा जोडो के दर्द की तकलीफ रहेगी। बाएँ हाथ के तिल का असर कभी ख़त्म नही हो सकता है। यदि दाँए हाथ की कोहनी पर तिल है तो पूजा या उपचार करने से कष्ट दूर हो सकता है।
पैर:
१> यदि पैर पर भी हाथ की तरह उन्ही जगह पर तिल है तो सारे प्रभाव हाथ जैसे ही होते है। परन्तु माना गया है की हाथ के तिल का प्रभाव पैर के तिल से ज्यादा होता है।
२> बाएँ पैर की जांघ पर यदि तिल हो तो यह व्यक्ति भोगी होता है। एवं कुछ लोगों में बवासीर होने की शिकायत भी पाई गई है। दाँए पैर की जांघ पर यदि तिल हो तो ऐसे व्यक्ति भी भोगी विलासी होते है। ऐसे व्यक्तियों को विपरीत लिंग के प्रति अधिक आकर्षण रहता है।
३> यदि घुटने पर तिल हो तो जोडो के दर्द अथवा मूत्र सम्बन्धी रोग हो सकते हैं।
पीठ:
पीठ के रीढ़ के दाए हिस्से पर उपर की तरफ़ यदि तिल हो तो यह व्यक्ति धनवान होता है एवम अपनो द्वारा अनेको बार मुसीबत आने पर मदद पता है.दाए ओर कमर से उपर यदि तिल हो तो ऐसा व्यक्ति खाने पीने का शौखिन होता है। तथा पेट के रोगों से ग्रस्त रह सकता है।यदि तिल कमर पर दाईं तरफ़ हो तो यह व्यक्ति अधिक कामुक होता है.बाएँ तरफ़ ऊपर की तरफ़ यदि तिल हो तो यह व्यक्ति बहुत कठिन परिश्रम के बाद ही पैसा कमाता है एवं अपने लोग इसे धोखा दिया करते हैं। यदि नीचे बैएँ तरफ़ तिल हो तो यह व्यक्ति आजीवन उदर रोग से ग्रस्त रहता है। तथा शल्य चिकित्सा की सम्भावना अधिक होती है। यदि तिल कमर पर हो तो यह व्यक्ति आजीवन कमर के दर्द से परेशान रहता है। तथा यदि स्त्री है तो उसे श्वेत प्रदर का रोग हो सकता है और पुरूष हो तो स्वप्नदोष की बेमारी अधिक होती है। रीढ़ पर ऊपर से नीचे यदि कहीं भी तिल हो तो रीढ़ की बीमारी या शरीर में जोडो के दर्द की शिकायत होती है। तथा ऐसे लोग हमेशा अपनों से ही धोखा खाते हैं और इनके पीठ पीछे हमेशा वार होता है। अधिकतर पाया गया है ऐसे लोग अपनों से ही धोखा खाते हैं।
हाथ के कांख:
दाँए कांख में यदि तिल हो तो यह व्यक्ति बहुत धनवान होता है तथा कंजूस भी होता है। बाएँ कांख में तिल हो तो यह व्यक्ति पैसे तो कमाते हैं लेकिन रोग और भोग में ही पैसो का नाश हो जाता है।
हिप:
यदि बाएँ हिप पर तिल हो तो यह व्यक्ति बवासीर सम्बन्धी या भगंदर सम्बन्धी रोगों से पीड़ित हो सकता है। यदि दाँए हिप पर तिल हो तो यह व्यक्ति व्यापारी है तो अपने व्यापर में बहुत आगे बढ़ता है
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