उस भव्य और सुंदर देवी को देख कर आनंद में वामा सबकुछ भूल गए। इतनी कम उम्र में वामा को माँ का दर्शन होना सिर्फ़ भक्ति और विश्वास के कारण था। सबने शमशान में प्रकाश देखा पर माँ के दर्शन तो सिर्फ़ वामा खेपा को ही हुए, तब से वाम देव जगत में पूज्य हो गए। तारापीठ के महंत मोक्षानंद पहले से ही वामा की महानता को जानते और इसलिए ही उन्होंने वामा को अपना शिष्य बनाया था। मोक्षानंद के मरने के बाद १८ वर्ष की उम्र में ही वामा चरण को तारापीठ का पीठाधीश बना दिया गया।
एक बार द्वारका नदी में स्नान करते समय उन्हे द्वारका नदी के उस पार राम नाम की ध्वनि सुनाई दी। कुछ देर बाद उन्होंने देखा की कुछ लोग घाट के उस पार एक शव ले कर आए हैं। वामा ने उत्सुकता वश वह शव देखा तो पता चला की वह उनकी माँ का ही शव था। माँ का शव देखते ही वह माँ माँ कह कर चिल्लाने लगे। कुछ भक्तो ने वामा चरण को सान्तवना दिया। वामा की इक्षा थी की उनकी माँ का शव माँ तारा के शमशान में ही जलाया जाए।
परन्तु बरसात के दिन थे और शव को नदी के दुसरे पार तारा शमशान तक ले जाना नामुमकिन था। सभी लोगों ने बामा खेपा को समझाया औरघाट के इस पार ही क्रिया कर्म करने की सलाह दी। परन्तु वामा खेपा माँ तारा का नाम लेते हुए अपनी माँ का शव अपने पीठ पर ले कर नदी को पैदल ही पार कर गए। और अंत में उन्होंने अपनी माँ का अन्तिम संस्कार माँ तारा के शमशान में पूरा किया।
उनके माँ के श्राद्ध का दिन नज़दीक आने लगा था। वह अपने गाव आतला गए। श्राद्ध से तीन दिन पहले वह पहुँच कर उन्होंने अपने छोटे भाई राम चरण से कहा की माँ के श्राद्ध के लिए घर के सामने वाली जमीन को साफ़ सुथरा कर दो, तथा आस पास के गाव के लोगों को निमंत्रण दे आओ। राम चरण ने अपने पागल भाई की बात पर ध्यान नही दिया और उनसे कहा की अभी तो हम स्वयं कष्ट में हैं। ऐसी हालत में हम लोगों को कहा से खिलाएंगे?
राम चरण के मना करने के बाद वामा खेपा ने स्वयं जमीन अपने हाथों से साफ़ की और वापस शमशान चले गए।
श्राद्ध वाले दिन अपने आप बडे बडे राजा महाराजों ने वामा के घर अपने आप अन्न और भोजन का सामन भेजनाशुरू कर दिया। यह देख कर राम चरण दंग रह गए और उन्हे तब अपने भाई की शक्ति का एहसास हुआ।
शाम को ब्रह्मण भोज के समय अचानक से मुसलाधार वर्षा होने लगी। राम चरण यह देख कर रोने लगे और इश्वर को याद करने लगे। तब तक वामा खेपा वह पहुंचे। उन्हे देखते ही राम चरण अपने भाई के चरण पकड़ कर रोने लगे। उन्होंने कहा की इतनी तेज़ बारिश में ब्रह्मण कैसे भोजन कर पाएंगे? तब वामा खेपा ने अपने शमशान का डंडा आकाश की तरफ़ कर दिया। और मुसलाधार बारिश होने के बाद भी ब्रह्मण भोज की जगह एक बूँद पानी नही गिरा। और उनकी माँ का श्राद्ध बिना किसी रूकावट के संपन्न हुआ। यह देख कर सभी चकित रह गए और वामा खेपा की शक्ति को प्रणाम करने लगे। अब ब्राह्मणों को अपने घर भी वापस जाना था, परन्तु बारिश काफी तेज़ पड़ रही थी। तब वामा खेप ने आकाश में चिल्लाते हुए माँ तारा से कहा की हे माँ क्या तू भी बाप के सामान कठोर हो गई है!! उनके इतना कहते ही ब्राह्मणों के घर जाने के मार्गो पर बारिश पड़ना बंद हो गया।
वामा खेपा शमशान में माँ तारा की पूजा अर्चना करते थे।वह रोज माँ को भोग लगते थे और माँ स्वयं आकर उनका भोग ग्रहण करती थी। एक दिन उन्होंने माँ को भोग लगाया परन्तु माँ नही आई। क्रोधित हो कर वामा ने माँ की मूर्ती पर मूत्र कर दिया। ऐसा करते देख मन्दिर के बाकि लोगों ने देख लिया। उन लोगों को बहुत बुरा लगा और उन्होंने रानी से वामा के इस घटना की शिकायत कर दी। रानी ने क्रोधित हो कर अपने दरबानों को आदेश दिया और वामा को पीट कर मन्दिर से बहार निकल फेंका। वामा को शमशान में फेंक दिया। फ़िर रानी ने दुसरे पंडित को माँ का भोग लगाने का कार्य दे दिया। चार दिन तक वामा खेपा शमशान में बिना कुछ खाए पिए पड़े रहे।
तब चार दिन के उपरांत माँ तारा ने रानी को अर्ध चैतन्य अवस्था में दर्शन दिए और कहा की रानी मैंने चार दिनों से भोग ग्रहण नही किया है। तब रानी ने चकित होकर माँ से कहा की हे माँ आपको तो रोज़ भोग लगता है। माँ तारा ने कहा की मेरा एक पागल बेटा है जिसे तुम्हारे दरबानों ने

इस प्रकार वामा खेप के जीवन में अनेको चमत्कार होते रहे। वामा खेपा के पहले वाम मार्ग एकदम विलुप्त हो रहा था। परन्तु उनकी भक्ति और चमत्कारों की वजह से वाम मार्ग को प्रसिद्धि मिली।
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