हिंदू धर्म में सिर्फ़ वाम मार्ग ही ऐसा मार्ग है जिसमें त्याग की बात कम कही गई है और बलि पर अधिक से अधिक ज़ोर दिया गया है। यहाँ मैं बलि और त्याग में जो एक महीन अन्तर है वह पहले व्यक्त करता हूँ।
त्याग का मतलब है किस को छोड़ देना परन्तु अगर मौका मिले तो फ़िर से त्याग की गई वस्तु वापस अपनाई जा सकती है। सनातन धर्म के अधिकतर संप्रदाय में त्याग को महत्त्व दिया गया है। परन्तु सिर्फ़ वाम मार्ग में बलि को प्राथमिकता दी गई है। बलि क्यों?? बलि का मतलब होता है किसी का अंत। इसलिए तंत्र में बलि की महत्वता है। क्योंकि बलि की गई वस्तु वापस नही आ सकती है। त्याग की गई वस्तु को वापस अपनाया जा सकता है पर बलि देने के बाद हम उस वस्तु को पहले के सामान कभी भी अपना नही सकते।
आम साधक बलि का सही भावार्थ नही समझ पाते हैं। बलि को हमेशा किसी प्राणी के अंत से ही देखा जाता है। परन्तु सही रूप में बलि तो हमें अपने अन्दर छिपे दोष और अवगुणों का देना चाहिए। वाम मार्ग में तथा तंत्र में एक सही साधक हमेशा अपने अवगुणों की ही बलि देता है। हमेशा भटके हुए साधक, जिन्हे तंत्र का पूरा ज्ञान नही है वह दुसरे जीवों की बलि दे कर समझते हैं की उन्होंने इश्वर को प्रसन्न कर दिया। पर माँ काली का कहना है की उन्हे साधक के अवगुणों की बलि चाहिए ना की मूक जीवों की।
त्यागी व्यक्ति को हमेशा यह भय रहता है की कही वह अपनी त्याग की गई वस्तु, आदत को वापस न अपना लें। इसलिए त्यागी संत या साधक पूरी तरह से निर्भय नही हो पाते हैं। परन्तु तांत्रिक साधक जब बलि दे देता है तो वह भयहीन हो जाता है। इसलिए वह बलि देने के बाद माँ के और समीप हो जाते है।
यदि एक उच्च कोटि का साधक बनना है तो बलि देने की आदत जरुरी है। बलि का मतलब यहाँ हिंसा से कभी भी नही है।
एक सफल साधक साधना में लीनं होने के लिए निम्न प्रकार की बलि देता है:
१> निजी मोह की बलि देता है।
२> निजी वासना की बलि देता है।
३> लज्जा की बलि देता है।
४> क्रोध की बलि देता है।
इसलिए त्याग से उत्तम बलि देना होता है। जो मनुष्य गृहस्थ आश्रम में है तथा सामान्य भक्ति करते हैं वह अपने जीवन में अगर कुछ हद तक मोह,वासना,ईष्या, और क्रोध की बलि दें तो वह इश्वर के समीप जा सकते है और उनका जीवन सफल होता है।
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